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________________ १ कविवर वृन्दावनजीका यह केवल एक प्रम है। क्योंकि यदि ऐसा होता, तो कहीर एकही पदमें देवी और वृन्द दो नाम नहीं लिखे जाते। * देवीदास नामके अनेक कवि हुए हैं। परन्तु अनुसंधान करनेसे विदित हुआ कि, वृन्दावनजीके समयमें उनमें कोई भी नहीं हुए हैं। हमारे कविवरके साथी देवीदासजी भी कवि थे, परन्तु अभीतक उनका कोई खतन । प्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ। काशीके शास्त्रभडारमें जहासे किहमने यह ग्रन्थ संग्रह किया है, कविवर देवीदासजीकृत प्रवचनसारग्रन्थ मिला था, जिससे । हमने समझा था कि, ये ही कविवर वृन्दावनके साथी देवीदासजी होंगे। * परन्तु उसकी प्रशस्ति देखनेसे यह अनुमान ठीक नहीं निकला । प्रवचन* सारके कर्ता देवीदास ओरछा राज्यके अन्तर्गत दुगोडा प्रामके रहनेवाले गोलालारे खरौवा जैनी थे। उन्होंने सवत् १८२४ में उक्त ग्रन्थ बनाया * था। परमानन्दविलास नामका ग्रन्थ भी शायद उन्हीं देवीदासका बनाया हुआ है। * आराके वृद्ध पुरुषोंके द्वारा विदित हुआ है कि, वृन्दावनजीका शरीर सर्व था। अर्थात् न लम्बे न नाटे साधारण कदके पुरुष थे। रंग गेहुँ-१ आ था । धोती मिरजई और पगड़ी यही आपकी साधारण देशी पोशाक थी। कभी २ आप टोपी भी लगाते थे। मृत्युके ५-७ वर्ष पहलेसे । वे उदासीन वृत्तिमें रहने लगे थे। इस लिये केवल एक कोपीन और चा दर ये दो ही वन रखने लगे थे। जूता पहिनना भी छोड़ दिया था। * कविवरको कहते हैं, युवावस्थामें केवल एक भग पौनेका व्यसन था। । उसके गुलाबी नशेमें आप धाराप्रवाह कविता किया करते थे। आपकी गुप्तदान करनेके विषयमें बड़ी भारी ख्याति थी। अनाथं दीन दुखियोंके आप परमबन्धु थे। है आपका खभाव बहुत शान्त था । आरामें एक शीतलगिरि नामके * सन्यासी एकबार आये थे। आप उनसे मिलने गये, तो मैले पैरो ही उनके विछौनेपर चले गये । इससे साधुमहाराजका मिजाज गरम हो गया। तब कविवरने कहा कि, "वाह ! नाम शीतलगिरि और काम ज्वालामुखीका !" यह सुनकर सन्यासीजी लजित हो गये।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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