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________________ अन्तलापिकाप्रकरणाष्टक । चित कित न लगावै, कंठमें का सु धार । अघ अधम उदय क्या, मानपूजापहार ।। जंगजन किन नासा, का न सम्यक्त जोगें। सुरपति रमनीसों, क्या करें साधु भोगें ॥ मत अतत उदै क्या, अल्पबुद्धी कहाल। किन वशकृत ऊषा, कोमके सूर बाल ॥ तैनमहँ महा को है, सातई नदि भन्य । जलमह कित मुक्ता, को नरा जक्त धन्य ।। अनल जल किया को, मुक्त कैसें निवास । हितवचन कहै क्यों, शीघ्र आलाप तास ॥ अधपतनसुमावी, कौन क्या घाम माहे । द्रुपतिपति बड़े क्यों, खेतमें धान काहे ॥ इसका उत्तरभी पहले छन्दकी विधिक अनुसार निकलता है। जैसे, काल, मल, केल, सूल, रल, वाल, कामके सूर वाल। १२ कामदेवके सूरवीरपुत्र प्रद्युम्नने ऊषाको वशमें की थी। ३ इस छन्दके अन्तके चरनके नववें अक्षर 'शी' में तुकातके सकारको मिलानेसे पहले प्रश्नका उत्तर होता है । फिर अनुक्रमसे पीछे २४ अक्षरोंको जोड़ पाच प्रश्नोंके उत्तर हो जाते हैं । इस प्रकार छह । प्रश्नोंका उत्तर देकर सातवें प्रश्नका उत्तर सातों अक्षरोंसे होता है। जैसे, शीस,शीता,शीप, शीला, शीआ, शीघ्र, शीघ्रालाप तास। १४ उत्तर पूर्ववत् । यथा, वार, वासा, वान, वाहे, वाने, वाल, बालनेहेन सार।इस छन्दके तुकातमें लघु है सो, गुरु पढना चाहिये ।। F - -- -- - -- - -
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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