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________________ ९२ वृन्दावनविलास - . पावै चारों अनंता निजगुन अमलानंद वृंदा धरा है।। * ताकी काया अछाया अनुपम पगपै पुष्पका नग्धरा है ॥५५॥ चित्रलेखा ( मभनययय) , जैनीवानी अमल अचल है दोषकी नाशनी है।' सोई मोकों परम धरम दे तत्त्वकी मासनी है ॥ बाकी जेते जगत जननसों है चला मार्ग भेखा।। तामें देखा कथन अमिलते दोषमें चित्रलेखा ॥ शिखरिणी ( यमनसमलग) जहां कोई प्रानी चढ़त गुणथाने उपशमी । गिरै आवै नीचे सुमगमहँ सम्यक्त्वहिं वमी ॥ तहां द्वेषा धारा बहत निज भावें विवरिनी। दही मीठा खाई वमनसमये ज्यों शिखरिनी ॥ शार्दूलविक्रीड़ित (मसजसततग) मोसों जी सततं गुरुगन जती ये कर्मशत्रू टरे । * सोई आप उपाय शीघ्र करिये हो दीनबंधू वरे ॥ - आपी स्वर्गपवर्ग देत जनको रक्षा करो प्रीढ़ित। । ____ आपी सर्व कुवादि जीति भगवन्शार्दूलविक्रीड़ितें ॥ इति गणछन्दप्रकरण । १इस उदाहरणमें छन्दका लक्षण भी दे दिया है। माय मोमो जी सततं गुये इस छन्दमें जौ २ गण है, उनके सूपक मा . क्षर है। मोसे मगण सोस सगण आदि अमन लेग नाहिन । - - - - - - -
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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