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________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन समभाव धारण कर लेता है फलत: उसका जीवन सर्वथा निर्द्वन्द्व होकर शांति एवं समभाव की लहरो में बहने लगता है । जस्स सामाणिओ अप्पा, संजम नियमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि - भासियं ॥ जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केपलि-भासियं ।' -अनुयोग द्वार सूत्र सम + अाय अर्थात् समभाव का पाना सामायिक है। जिस प्रकार हम अपने आप को देखते हैं, अपनी सुख-सुविधाओं को देखते हैं, अपने पर स्नेह सद्भाव रखते हैं, उसी प्रकार दूसरी श्रात्मानो के प्रति भी सदय एवं सहृदय रहना, सामायिक है । बाह्य दृष्टि का त्याग कर अन्तदृष्टि अपनाइए, आत्मनिरीक्षण में मन को जोडिए, विषमभाव का त्याग कर -समभाव में, स्थिर बनिए, पौद्गलिक पदार्थों का ममत्व हटाकर आत्म स्वरूप में रमण कीजिए, आप सामायिक के उच्च आदर्श पर पहुँच जायँगे। यह सामायिक समस्त धर्म-क्रियायो, साधनाओं, उपासनाओं, सदाचरणो के प्रति उसी प्रकार आधारभूत है, जिस प्रकार कि आकाश और पृथ्वी चराचर प्राणियों के लिए आधारभूत हैं। १-जिसकी आत्मा संयम में, नियम में तथा तप में लीन है, वस्तुतः ___ उसी का सच्चा सामायिक व्रत है, ऐसा केवल ज्ञानियों ने कहा है। -जो त्रस और स्थावर सभी प्राणियो पर समभाव रखता है, मैत्री भावना रखता है, वस्तुतः उसी का सच्चा सामायिक व्रत है, ऐसा केवल ज्ञानियों ने कहा है।'
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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