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________________ आवश्यक के छः प्रकार ___ जैन-संस्कृति में जिसे आवश्यक कहा जाता है, वैदिक संस्कृति में उसे नित्य-कर्म कहते हैं । वहाँ ब्राहाण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अलग-अलग कर्म बताए गए हैं । ब्राह्मण के छः कर्म हैं-दान लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, स्वयं पढ़ना, और दूसरो को पढ़ाना । इसी प्रकार रक्षा करना आदि क्षत्रिय के कर्म हैं । व्यापार करना, कृषि करना, पशु पालन करना श्रादि वैश्यकर्म हैं । ब्राह्मण आदि उच्च वर्ग की सेवा करना शूद्रकर्म है। ___ मैं पहले लिख कर आया हूँ कि ब्राह्मण-संस्कृति ससार की भौतिकव्यवस्था में अधिक रस लेती है, अतः उस के नित्यकर्मों के विधान भी उसी रंग में रंगे हुए हैं । उक्त आजीविका मूलक नित्यकर्म का यह परिणाम पाया कि भारत की जनता ऊँचे नीचे जातीय भेद भावों की दलदल में फंस गई। किसी भी व्यक्ति को अपनी योग्यता के अनुसार,जीवनोपयोगी कार्य-क्षेत्र में प्रवेश करना कठिन हो गया । प्रायः प्रत्येक दिशा में अनादि अनन्त काल के लिए ठेकेदारी का दावा किया जाने लगा। परन्तु जैन-संस्कृति मानवता को जोडने वाली संस्कृति है। उसके यहाँ किसी प्रकार की भी ठेकेदारी का विधान नहीं है । अत एव जैनधर्म के षडावश्यक मानव मात्र के लिए एक जैसे हैं । ब्राह्मण हों, क्षत्रिय हों, वैश्य हों, शूद हो, कोई भी हों सब सामायिक कर सकते हैं, वन्दन कर सकते हैं, प्रतिक्रमण कर सकते हैं। छहों ही आवश्यक विना किसी जाति और वर्ग भेद के सब के लिए आवश्यक हैं। केवल गृहस्थ
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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