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________________ ७८ आवश्यक दिग्दशन सयणे य जणे य समो, समो अ माणावमाणेसु ।।३।। -श्रमण सुमना होता है, वह कभी भी पापमना नहीं होता। अर्थात् जिसका मन सदा प्रफुल्लित रहता है, जो कभी भी पापमय चिन्तन नहीं करता, जो स्वजन और परजन में तथा मान और अपमान में बुद्धि का उचित सन्तुलन रखता है, वह श्रमण है।। आचार्य हरिभद्र दशवकालिक सूत्र के प्रथम अध्ययन की तीसरी गाथा का मर्मोद्घाटन करते हुए श्रमण का अर्थ तपस्वी करते हैं । अर्थात् जो अपने ही श्रम से तप.साधना से मुक्ति लाभ करते है वे श्रमण कहलाते हैं-'श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः ।' प्राचार्य शीलांक भी सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्धान्तर्गत १६ । अध्ययन में श्रमण शब्द की यही श्रम और सम सम्बन्धी अमर घोषणा कर रहे हैं-'श्राम्यति तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणो वाच्योऽथवा समं तुल्यं मित्रादिषु मन:-अन्तःकरणं यस्य सः सममनाः सवत्र वासीचन्दनकल्प इत्यर्थः ।। सूत्रकृताङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुत स्कन्धान्तर्गत १६ वें गाथा अध्ययन मे भगवान् महावीर ने साधु के माहन' (ब्राह्मण), श्रमण, भितु और निग्रन्थ3 इस प्रकार चार सुप्रसिद्ध नामों का वर्णन किया है । साधक के १ किसी भी प्राणी का हनन न करो, यह प्रवृत्ति जिसकी है, वह माहन है। 'माहणत्ति प्रवृत्तिर्यस्याऽसौ माहनः। श्राचार्य शीलांक, सूत्र कृतांग वृत्ति १।१६। २ जो शास्त्र की नीति के अनुसार तपः साधना के द्वारा कर्मबन्धनों का भेदन करता है, वह भिक्षु है। 'यः शास्त्रनीत्या तपसा कर्म भिनत्ति स भिन्नुः। श्राचार्य हरिभद्र, दशवकालिक वृत्ति दशम अध्ययन । ३ जो ग्रन्थ अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित होता है, कुछ भी छुपाकर गाँठ बाँधकर नही रखता है, वह निग्रन्थ है। 'निर्गतो ग्रन्थाद् निर्ग्रन्थः । प्राचार्य हरिभद्र, दशवकालिक वृत्ति प्रथम अध्ययन । - - -
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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