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________________ 'श्रमण' शब्द का निर्वचन भारत की प्राचीन संस्कृति, 'श्रमण' और 'ब्राह्मण' नामक दो धारात्रों में बहती आ रही है। भारत के प्रति समृद्ध भौतिक जीवन का प्रतिनिधित्व ब्राह्मण धारा करती है और उसके उच्चतम आध्यात्मिक जीवन का प्रतिनिधित्व श्रमण-धारा । यही कारण है कि जहाँ ब्राह्मणसंस्कृति ऐहिक सुखसमृद्धि, भोग एवं स्वर्गीय सुख की कल्पनाश्रो तक ही अटक जाती है, वहाँ श्रमण सस्कृति त्याग के मार्ग पर चलती है, मन की वासनानो का दलन करती है, स्वर्गीय सुखो के प्रलोभन तक को ठोकर लगाती है, और अपने बन्धनों को तोडकर पूर्ण, सच्चिदानन्द, अजर, अमर, परमात्मपद को पाने के लिए संवर्ष करती है । ब्राह्मणसंस्कृति का त्याग भी भोग-मूलक है और श्रमण संस्कृति का भोग भी त्याग-मूलक है । ब्राह्मण सस्कृति के त्याग मे भोग की ध्वनि ही ऊँची रहती है और श्रमण संस्कृति के भोग मे त्याग की ध्वनि । संक्षेप में यह भेद है श्रमण और ब्राह्मण सस्कृति का, यदि हम तटस्थ वृत्ति से कुछ विचार कर सके। लेखक, भिक्षु होने के नाते श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है, अतः उसकी महत्ता की डींग मारता है, यह बात नहीं है । ब्राह्मण सस्कृति का साहित्य भी इसका साक्षी है। ब्राह्मण साहित्य का मूल वेद है। वह ईश्वरीय वाणी के रूप में परम पवित्र एवं मूल सिद्धान्त माना
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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