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________________ ' श्रमण-धर्म : ६१ सत्य, अहिंसा का ही विराट रूपान्तर है । सत्य का व्यवहार केवल -वाणी से ही नहीं होता है, जैसा कि सर्व-साधारण जनता समझती है । उसका मूल उद्गम-स्थान मन है। अर्थानुकूल वाणी और मन का व्यवहार होना ही मत्य है। 'अर्थात् जैसा देखा हो, जैसा सुना हो, जैसा अनुमान किया हो, वैसा ही वाणी से कथन करना और मन मे धारण करना, सत्य है । वाणी के सम्बन्ध में यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि केवल सत्य कह देना ही सत्यं नहीं है, अपितु सत्य कोमल एवं मधुर भी' होना चाहिए। सत्य के लिए अहिंसा मूल है। अतः यथार्थ ज्ञान के द्वारा यथार्थ रूप में अहिंसा के लिए जो कुछ विचारना, कहना एव करना है, वही सत्य है। दूसरे व्यक्ति को अपने . बोध के अनुसार ज्ञान कराने के लिए प्रयुक्त हुई वाणी धोखा देने वाली और भ्रान्ति मे डालने वाली न हो; जिससे किसी प्राणी को पीडा तथा हानि न हो, प्रत्युत सब प्राणियों के उपकार के लिए हो, वही श्रेष्ठ सत्य है । जिस वाणी में प्राणियों का हित न हो, प्रत्युत प्राणियों का नाश हो तो वह सत्य होते हुए भी सत्य-नही है । उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति द्वेष से दिल- दुखाने के लिए अधे को तिरस्कार के साथ अन्धा कहता है तो यह असत्य है; क्योंकि यह एक हिंसा है। और जहाँ हिंसा है, वह सत्य भी असत्य है; क्योंकि हिंसा सदा असत्य है। कुछ अविवेकी पुरुष दूसरो के हृदय - को पीडा पहुँचाने वाले दुर्वचन कहने में ही अपने सत्यवादी होने का गर्व करते हैं, उन्हें ऊपर के विवेचन पर ध्यान देना चाहिए । जैन-श्रमण सत्यव्रत का पूर्णरूपेण पालन करता है, अतः उसका सत्य व्रत सत्य महाव्रत कहलाता है। वह मन, वचन और शरीर से न स्वय असत्य का आचरण करता है, न दूसरे से करवाता है, और न कभी असत्य का अनुमोदन ही करता है। इतना ही नही, किसी तरह का सावध वचन भी नही बोलता है । पापकारी वचन बोलना भी असत्य ही है। अधिक बोलने में असत्य की आशंका रहती है, अतः'
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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