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________________ श्रावक धर्म गणना करते ? क्यो उच्च सदाचारी गृहस्थों को श्रमण के समान उपमा देते हुए 'समणभूए' कहते ? क्यों उत्तराध्ययन सूत्र के पंचम अध्ययन की वाणी में यह कहा जाता कि कुछ भिन्तुओं की अपेक्षा संयम की दृष्टि से गृहस्थं श्रेष्ठ है और गृहस्थ दशा में रहते हुए भी साधक सुव्रत हो जाता है। 'संति एगेहि भिक्खूहि गारस्था संजमुत्तरा ।' 'एवं सिक्खासमावन्ने गिहिवासे वि सुव्वए।' यह ठीक है कि गृहस्थ का धर्म-जीवन क्षुद्र है, साधु का जैसा महान् नहीं है। परन्तु यह तुद्रता साधु के महान् जीवन की अपेक्षा से है। दूसरे साधारण भोगासक्ति की "दलदल में फंसे संसारी मनुष्यों की अपेक्षा तो एक धर्माचारी सद्गृहस्थ का जीवन महान ही है, क्षुद्र नहीं । प्रवचन सारोद्धार ग्रन्थ में श्रावक के सामान्य गुणों का निरूपण - करते हुए कहा गया है कि "श्रावक प्रकृति से गंभीर एवं सौम्य होता है। दान, शील, सरल व्यवहार के द्वारा जनता का प्रेम प्राप्त करता है। पापों से डरने वाला, दयालु, गुणानुरागी, पक्षपात रहित मध्यस्थ, बडों का आदर सत्कार करने वाला, कृतज% किए उपकार को मानने चाला, परोपकारी एवं हिताहित मार्ग का ज्ञाता दीर्घदी होता है।" धर्म संग्रह में भी कहा है कि "श्रावक इन्द्रियों का गुलाम नहीं होता, उन्हे वश में रखता है। स्त्री-मोह मे पड़कर वह अपना अनासक्त मार्ग नहीं भूलता । महारंभ और महापरिग्रह से दूर रहता है। भयंकर से भयंकर सेंकटों के आने पर भी सम्यक्त्व से भ्रष्ट नहीं होता । लोकरूढि का सहारा लेकर वह भेड चाल नहीं अपनाता, अपितु सत्य के प्रकाश में हिताहित का निरीक्षण करता है। श्रेष्ठ एवं दोष-रहित धर्माचरण की साधना में किसी प्रकार की भी लजा एवं हिचकिचाहट नहीं करता । अपने पक्ष का मिथ्या आग्रह कभी नहीं करता । परिवार आदि का पालन पोषण करता हुश्रा भी अन्तहदय से अपने को अलग रखता है, पानी में कमल बनकर रहता है।"
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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