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________________ सच्चे सुख की शोध ૨ तो दूसरा वस्तुनिष्ठ । एक आध्यात्मिक है तो दूसरा भौतिक । एक अजर अमर है तो दूसरा क्षणिक, क्षण भंगुर । एक दुःख की कालिमा से - सर्वथा रहित है तो दूसरा विषमिश्रित मोदक । बाह्य सुख में सब प्रकार के भौतिक तथा पौद्गलिक सुखो का समावेश हो जाता है । यह सुख वस्तुनिष्ठ है, अतः वस्तु है तो सुख है, अन्यथा दुःख ! एक बच्चा रो रहा है। आपने खिलौना दिया तो आनन्द में उछल पडा, नाचने लगा। परन्तु कितनी देर ? देखिए, खिलोना टूट गया है, और वह बच्चा अब पहले से भी अधिक रो रहा है। कहाँ गया, वह आनन्द-नृत्य ? खिलौने के साथ साथ वह भी टूट गया क्योंकि वह वस्तुनिष्ठ था। यही सुख, वह सुख है, जिसके पीछे संसारी प्राणी पागल की तरह भटकता रहा है, अपने समय और शक्तियों का अपव्यय करता आ रहा है । इस सुख का केन्द्र धन है, विषय वासना है, भोग लिप्सा है, वस्तु संग्रह है, सन्तान की इच्छा है, स्वजन परिजन आदि हैं। परन्तु यह सब सुख, सुख नहीं, सुखाभास है । भोगवासना की तृप्ति में कल्पित सुख की अपेक्षा वास्तविक दुःख ही अधिक है। अधिक क्या, अनन्त है । 'खणमित्तसुक्खा, बहुकाल दुक्खा।' क्या धन में सुख है ? धनप्राप्ति के लिए कितना दम्भ रचा जाता है ? कितनी घृणा ? कितना द्वेष? कितना अत्याचार ? भाई भाई का गला काट रहा है, धन के लिए । विश्व व्यापी युद्धो मे प्रजा के खून की नदियाँ बह रही हैं, धन के लिए । मनुष्य धन के लिए पहाडो पर चढ़ता है, रेगिस्तानों में भटकता है, सनुद्रो मे डूबता है, फिर भी भाग्य का द्वार नहीं खुल पाता । साधारण मजदूर कहता है कि हाय धन मिले तो पाराम से जिन्दगी कटे, संसार मे और कुछ दुर्लभ नहीं, दुर्लभ है-एक मात्र धन | परन्तु सेठिया कहता है कि अरे धन की क्या बात है ? मैने लाखो कमाये हैं, और अब लाखो कमा सकता हूँ। मैने सब तरफ धन के ढेर लगा दिए हैं, सोने के महल खड़े कर दिए हैं । परन्तु इस धन
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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