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________________ २४ आवश्यक दिग्दर्शन महत्त्व देकर मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं किया जा सकता ! एक धर्म ही मनुष्य के पास ऐसा है, जो उसकी अपनी विशेषता है, महत्ता है। अतः जो मनुष्य धर्म से शून्य हैं, वे पशु के समान ही हैं। "आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम। धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥" मनुष्य अमर होना चाहता है। इसके लिए वह कितनी औषधियाँ खाता है, कितने देवी देवता मनाता है, कितने अन्याय और अत्याचार के जाल बिछाता है ! परन्तु क्या यह - अमर होने का मार्ग है ? अमर होने के लिए मनुष्य को धर्म की शरण लेनी होगी, त्याग का आश्रय लेना होगा। भगवान् महावीर कहते हैं : "वित्तण ताणं न लभे पमत्ते, इमंमि लोए अदुवा परत्था" -उत्तराध्ययन सूत्र --प्रमत्त मनुष्य की धन के द्वारा रक्षा नहीं हो सकेगी; न इस लोक में और न परलोक मे। कठोपनिषत् कार कहते हैं : "न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः ।" मनुष्य कभी धन से तृप्त नही हो सकता। "श्रयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतसू तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः। । यो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षमाद् वृणीते॥"
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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