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________________ २०६ श्रावश्यक दिग्दर्शन उपयुक्त विभाग पर से यह प्रतिफलित होता है कि 'आवश्यक अंग अर्थात् मूल आगम नहीं है, 'अंगबाह्य' शब्द ही इस बात को स्पष्ट कर देता है। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य की व्याख्या भी यही है कि जो गणधर रचित हो, वह अंग-प्रविष्ट । और जो गणधरो के बाद होने वाले स्थविर मुनियों के द्वारा प्राचीन मूल आगमों का आधार लेकर कही शब्दशः तो कहीं अर्थशः निमित हो, वह अंग बाह्य । देखिए, प्राचार्य जिनदास आवश्यक चूर्णि में यही व्याख्या करते हैं ? " अरहते हिं भगवन्ते हि अईयाणागयवट्टमाणदव्वखेत्तकालभावजथावत्थितदेसीहि अत्था परूविया ते गणहरेहि परमबुद्धि सन्निवायगुणसम्पन्नेहि सयं चेव तित्थगरसगासाओ उबलभिजणं सव्वसत्ताणं हितट्टयाए सुत्ततेण उपणिबदा त अंगपविट्ट, पायाराइ दुवालसविहं । पुण अरणेहिं विसुद्धागमबुद्धिजुत्तेहि थेरेहिं अप्पाउयाणं मण याणं अप. बुद्धिसतीणं च दुग्गाह ति णाऊण तं चेव पायाराइ सुयणाण परम्परागतं अत्थतो गंथतो य प्रतिबहुति काऊण अणकपानिमित्तं दसवेतालियमादि परुवियं तं प्रणेगभेदं श्रणंगपविद्ध" अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य की यही व्याख्या उमास्वातिकृत तत्त्वार्थ भाष्य, भट्टाकलंककृत राजवार्तिक आदि प्रायः सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ग्रन्थों में है । इस व्याख्या पर से मालूम होता है कि प्राचीन जैन परम्परा में आवश्यक को श्रीसुधर्मा स्वामी श्रादि गणधरों की रचना नहीं माना जाता था । अपितु स्थविरो की कृति माना जाता था। अब प्रश्न रह जाता है कि किस काल के किन स्थविरों की कृति है ? इसका स्पष्ट उत्तर अभी तक अपने पास नहीं है । हाँ, श्रावश्यक सूत्र पर श्राचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति है, सो उनसे बहुत पहले ही कभी सूत्र पाठों का निर्माण हुया होगा ! वर्तमान श्रागम साहित्य के सर्व प्रथम लेखन काल मे श्रावश्यक सूत्र विद्यमान था, तभी तो भगवती सूत्र आदि में उसका उल्लेख किया गया है । इन उल्लेखों को देखकर कुछ लोग कहते है, कि श्यावश्यक प्रादि भी गणधर कृत ही है, तभी तो मूल श्रागम में
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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