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________________ मानव जीवन का ध्येय अन्दर है, वह यदि बाहर आ जाय तो गीध, कौवे और कुत्ते उसे नोच खाएँ ! कहीं भी बाहर आना-जाना कठिन हो जाय। और यह मनुष्य का रूप दूसरे पशु पक्षियों की तुलना में है भी क्या चीज,? मयूर कितना सुन्दर पक्षी है ! गर्दन और पखों का सौन्दर्य मोह लेने वाला है। शुतुरमुर्ग के शानदार छोटे से छोटे पंख का मूल्य, कहते हैं-चालीस से पचास रुपयो तक होता है। मनुष्य की वाणी का माधुर्य कोयल से उपमित होता है । गति की उपमा हंस की गति से और नाक की उपमा तोते की चोंच से दी जाती है। किंबहुना, प्रत्येक अग का सौन्दर्य विभिन्न पशु पक्षियों के अवयवो से तुलना पाकर ही कवि की वाणी पर चढ़ता है । इस का अर्थ तो यह हुआ कि मनुष्य का रूप पशु-पक्षियों के सामने तुच्छ है, नगण्य है ! अतएव रूप की दृष्टि से मनुष्य की महत्ता और श्रेष्ठता का कुछ भी मूल्य नहीं है। अब रहा, परिवार का बडापन ! क्या मनुष्य के दस-बीस बेटे, पोते और नाती हो जाने से उसका कुछ महत्त्व बढ़ जाता है ? कितना ही बडा परिवार हो, कितनी ही अधिक संन्तति हो, मनुष्य का महत्त्व इनसे अणुमात्र भी बढने वाला नहीं है। रावण का इतना बड़ा परिवार था, आखिर वह क्या काम आया ? छप्पन कोटि यादव, जो एक दिन भारतवर्ष के करोडों लोगों के भाग्य-विधाता बन बैठे थे, अन्त मे कहाँ विलीन हो गए ? श्री कृष्ण को यादव जाति के द्वारा क्या सुख मिला ? मथुरा के राजा उग्रसेन के यहाँ कंस का जन्म हुअा। बड़ा भाग्यशाली पुत्र था जो भारत के प्रतिबासुदेव जरासन्ध का प्यारा दामाद बना! परन्तु उग्रसेन को क्या मिला ? जेलखाना मिला और मिली प्रतिदिन पीठ पर पॉचसौ कोहों की असह्य मार ! और राजा श्रोणिक को भी तो वह अजातशत्रु कोणिक पुत्र के रूप में प्राप्त हुआ था, जिसके वैभव के वर्णन से औपपातिक सूत्र की प्रस्तावना अटी पड़ी है। परन्तु राजा -श्रोणिक से पूछते तो पता चलता कि पुत्र और परिवार का क्या अानन्द होता है ? यह पुत्र का ही काम था कि राजा श्रोणिक को अपने बुढ़ापे की घड़ियाँ
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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