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________________ आवश्यक दिग्दर्शन जेण ते असढा पाणावता परिणामगा, न य पमादबहुलो, तेण तेसिं एवं भवति ।" महाविदेह क्षेत्र में हमारी परम्परा के अनुमार सदाकाल २२ तीर्थंकरों के समान ही जिनशासन है, अतः वहाँ भी दोष लगते ही प्रतिक्रमण होता है, उभय काल आदि नहीं। श्रावकों के प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में क्या स्थिति थी, यह अभी सप्रमाण स्पष्ट नहीं है । परन्तु अभी ऐसा ही कहा जा सकता है कि साधुओं के समान श्रावकों का भी अपने-अपने जिन शासन में यथाकाल ध्रुव एवं अध्रुव प्रतिक्रमण होता होगा। , प्रश्न-प्रतिक्रमण की क्या विधि है ? कौन से पाठ कत्र और कहाँ बोलने चाहिए ? उत्तर-अाजकल विभिन्न गच्छों की लम्बी-चौडी विभिन्न परम्पराएँ प्रचलित हैं | अस्तु, अाज की परम्पराओं के सम्बन्ध में हम कुछ नहीं कह सकते । हाँ उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी नामक छब्बीसवे अध्ययन में प्रतिक्रमण विधि की एक संक्षिप्त रूप रेखा है, वह इस प्रकार है (१) सर्व प्रथम कायोत्सर्ग में विसिक ज्ञान दर्शन चरित्र सम्बन्धी अतिचारों का चिन्तन करना चाहिए। (२) कायोत्सर्ग पूर्ण करके १-अतिचार चिन्तन के लिए अाजकल हिन्दी, गुजराती भाषा में कुछ पाठ प्रचलित है । परन्तु पुराने काल में ऐसा कुछ नहीं था और न होना ही चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति का जीवन प्रवाह अलग-अलग बहता है, अतः प्रत्येक को अतिचार भी परिस्थिति वश अलग-अलग लगते हैं, भला उन सब विभिन्न दोषों के लिए कोई एक निश्चित पाठ कसे हो सकता है ? साधक को अतिचार सम्बन्धी कायोत्सर्ग में यह विचारना चाहिये कि अमुक टोप, अमुक समय विशेष मे, अमुक परिस्थिति वश लगा है ? कब, कहाँ किस के साथ क्रोध, अभिमान, छल या लोभ का व्यवहार किया है ? कत्र, कहाँ, कौनसा विकार मन वाणी एवं कर्म के
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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