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________________ मुद्रा साधक के लिए आवश्यक आदि क्रिया करते समय जहाँ अन्नरंग में मन की एकाग्रता अपेक्षित है, वहाँ बाहर में शरीर की एकाग्रता भी कम महत्त्व की नहीं है । वह द्रव्य अवश्य है, परन्तु भाव के लिए अत्यन्त अपेक्षित है। सैनिक में जहाँ वीरता का गुण अपेक्षित है, वहाँ बाहर का व्यायाम और कवायद क्या कुछ कम मूल्य रखते हैं ? नहीं, वे शरीर को सुदृढ, स्फूर्तिमान, और विरोधी अाक्रमण से बचने के योग्य चनाते हैं । यही कारण है कि भारतीय धर्मों में आध्यात्मिक क्षेत्र में भी प्रासन और मुद्रा आदि का बहुत बड़ा महत्त्व माना गया है। शरीर के अव्यवस्थित रूप में रहने वाले अवयवों को अमुक विशेष प्राकृति में व्यवस्थित करना, सामान्य रूप से मुद्रा कहा जाता है । मुद्रा, साधक में नवचेतना पैदा करती है और भावना का उल्लास जगा देती है । ज्यों ही किसी विशेष मुद्रा के करने का प्रसग पाता है, त्यों ही साधक जागृत हो जाता है और उसका भूला भटका मन सहसा केन्द्र मे आ खडा होता है । मन्द और क्षीण हुई धर्म चेतना, मुद्रा का प्रसंग पा कर पुनः उद्दीन हो उठती है; फलतः साधक नई स्फूर्ति के साथ साधना के पथपर अग्रसर हो जाता है।' १-मुद्रा के लिए प्राचार्य नेमिचन्द्र प्रवचन सारो द्वार में कहते हैं कि मुद्रासे अशुभ मन, वचन, काय योग का निरोध होता है और उनकी शुभ में प्रवृत्ति होती है। 'कायमणोक्यणनिरोहणं य तिविहं च पणिहाणं ।। १-७१ । 'कायमनोवचनानामकुशजरूपाणां निरोधननियत्रणं, शुभानां च तेषां करणमिति । -
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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