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________________ १८१ अतिक्रमण : मिच्छामि दुक्कडं नहीं। हॉ, तो मिच्छामि दुक्कडं भी एक प्रायश्चित्त है । इसके मूल में पश्चात्ताप की भावना है, यदि वह सच्चे मनसे हो तो ?' __ ऊपर के लेखन मे बार-बार सच्चे मन और पश्चात्ताप की भावना का उल्लेख किया गया है। उसका कारण यह है कि अाजकल जनों का 'मिच्छामि 'दुक्कड' काफी बदनाम हो चुका है। आज के साधकों की साधना के लिए, आत्म-शुद्धि के लिए तैयारी तो होती नहीं है। प्रतिक्रमण का मूल श्राशय समझा तो जाता नहीं है। अथवा समझकर भी नैतिक दुर्बलता के कारण उस विकाश तक नहीं पहुंचा जाता है। अतः वह लोक रूटि के कारण प्रतिक्रमण तो करता है, मिच्छामि दुक्कडं भी देता है, परन्तु फिर उसी पाप को करता रहता है, उससे निवृत्त नहीं होता है। पाप करना, और मिच्छामि दुक्कडं देना, फिर पाप करना और फिर मिछामि दुक्कडं देना, यह सिलसिला जीवन के अन्त तक चलता रहता है, परन्तु इससे आत्म शुद्धि के पथपर जरा भी प्रगति नहीं हो पाती। जैन-धर्म इस प्रकार की बाह्य-साधना को द्र-साधना कहता है। वह केवल वाणी से 'मिच्छामि दुक्कड' कहना, और फिर उस पाप को करते रहना, ठीक नहीं समझता है । मन के मैल को साफ किए बिना और पुनः उस पाप को नहीं करने का दृढ़ निश्चय किए बिना, खाली ऊपर-ऊपर से 'मिच्छामि दुक्कडं' कहने का कुछ अर्थ नहीं है। एक श्रोर दूसरों का दिल दुखाने का काम करते रहें, हिंसा करते रहें, झूठ बोलते रहें, अन्याय अत्याचार करते रहें, और दूसरी ओर मिच्छामि दुक्कडं की रट लगाते रहें, तो यह साधना का मजाक नहीं तो और क्या है ? यह माया है, साधना नहीं। इस प्रकार की 'मिच्छामि दुक्कड' पर जैन-धर्म ने कठोर आलोचना की है। इसके लिए आवश्यक चूर्णि में प्राचार्य जिनदास कुम्हार के पात्र फोड़ने वाले शिष्य का उदाहरण देते हैं। - एक बार एक श्राचार्य किसी गाँव में पहुंचे और कुम्हार के पडोस में ठहरे। श्राचार्य का एक छोटा शिष्य बड़ी चंचल प्रकृति का खिलाड़ी
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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