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________________ १६६ आवश्यक दिग्दर्शन कुत्ता चुपचाप आटा खाता जा रहा है । बुढ़िया को क्या पल्ले पड़ेगा ! केवल श्रम, कष्ट, चिन्ता और शोक ! और कुछ नहीं। जैन संस्कृति का प्रतिक्रमण यही जीवनरूपी बही की जाँच पडताल है । साधक को प्रति दिन प्रातःकाल और सायंकाल यह देखना होता है कि उसने क्या पाया है और क्या खोया है ? अहिंसा, सत्य, और संयम की साधना में वह कहाँ तक आगे बढा है ? कहाँ तक भूला भटका है ? कहाँ क्या रोड़ा अटका है ? दशवकालिक सूत्र की चूलिका मे इसी महान भाव को लेकर कहा गया है कि साधक ! तू प्रतिदिन विचार कर कि मैने क्या कर लिया है और अब आगे क्या करना शेष रहा है ? 'कि मे कडं किं च मे किच्चसेसं?' वैदिक धर्म के महान् उपनिषद् ग्रन्थ ईशावास्य में भी यही कहा है कि 'कृतं स्मर ।' अर्थात् अपने किए को याद कर ! जब साधक अपने किए को याद करता है, अपनी अतीत अवस्था पर दृष्टि डालता है तो उसे पता लग जाता है कि कहाँ क्या शिथिलता है ? कौन सी त्रुटियाँ हैं और वे क्यों हैं ? बालस्य आगे नहीं बढ़ने देता ? या समाज का भय उठने नहीं देता ? या अन्दर की वासनाएँ ही साधनाकल्पवृक्ष की जड़ों को खोखला कर रही हैं ? प्रतिक्रमण कहिए, या अपने किए हुए को याद करना कहिए, साधक जीवन के लिए यह एक अत्यन्त श्रावश्यक क्रिया है ! इसके करने से जीवन का भला बुरा पन स्पष्टतः प्रॉखों के सामने झलक उठता है। दुर्बल से दुर्बल और सबल से सबल साधक को भी तटस्थ भाव से अलग सा. खड़ा होकर अपने जीवन को देखने का, अपनी आत्मा को विश्लेषण करने का अवसर मिलता है । यदि कोई सच्चे मन से चाहे तो उक्त प्रतिक्रमण की क्रिया द्वारा अपनी साधना की भूजो को साफ कर सकता है ओर अपने आपको पथ भ्रष्ट होने से.बचा सकता है। । • कहते हैं, पाचात्य देश के सुप्रसिद्ध विचारक फ्रैंकलिन ने अपने जीवन को डायरी से सुपारा था । वह अपने जीवन की हर घटना को
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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