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________________ १६४ आवश्यक दिग्दर्शन तुझ से और तेरी ओर से दी जाने वाली मृत्यु से डरूँ तो क्यो डरूँ ? देवता सन्नाटे में आ गया। श्राज उसे हिमालयाकी चट्टान से टकर राना पड़ रहा था। फिर भी वह मर्कट-विभीपिका दिखाए जा रहा था ! पास के लोगों ने भयाक्रान्त हो कर, अहंन्नक से कहा-“सेठ ! तू झूठमूठ ही जबान से कह दे कि मैने धर्म छोड़ा। देवता चला जायगा । फिर, जो तू चाहे करना । तेरा क्या बिगडता है ?" अर्हन्नक लोगों की बात समझ नही सका! झूठ-मूठ के लिए ही कह दो, क्या बला है, ध्यान में न ला सका। उसने कहा-"जो मेरे मन में नहीं है, उसके लिए मेरी.वाणी-कैसे हाँ भरे ! झूठ-मूठ के लिएकुछ कहना, मैने सीखा ही कहाँ है ? मेरे धर्म की यह भाषा ही नहीं है। जो पानी कुँए में है वही तो डोल में आयगा । कुँए मे और पानी हो, और-डोल में कुछ और ही पानी ले आऊँ, यह कला न मुझे आती है और न मुझे पसन्द ही है। मेरे धर्म ने मुझे यही सिखाया है कि जो सोचो, वही कहो, और जो कहो, वही करो। अब बताओ, मै मन में सोची बात से भिन्न रूप में कुछ कहूँ तो कैसे कहूँ ? प्राण दे सकता हूँ, अपना सर्वस्व लुटा सकता हूँ, परन्तु मैं अपने मन, वाणी और कर्म तीनों के तीन टुकड़े कदापि नहीं कर सकता . . । - यह है प्रतिक्रमण की साधना के अमर साधको की जीवनकला! जिस दिन विश्व की भूली भटकी हुई मानव, जाति प्रतिक्रमण की साधना अपनाएगी, जीवन की एक रूपता के महान् अादर्श को सफल बनाएगी, -उस दिन विश्व में क्या भौतिक -और क्या, आध्यात्मिक सभी प्रकार से नवीन जीवन का प्रकाश होगा, संघर्षों का अन्त होगा और होगा-दिव्य विभूतियों का अजर, अमर, अक्षय साम्राज्य !
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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