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________________ १५२ . श्रावश्यक दिग्दर्शन किसी शब्द विशेष का जप हुआ करे, परन्तु उसके हृदय में उच्च ध्येय का विचार कभी नहीं पाता। जो साधक कायोत्सर्ग के द्वारा विशेष चित्त-शुद्धि, एकाग्रता और श्रात्मबल प्राप्त करता है, वही प्रत्याख्यान का सच्चा अधिकारी है । जिसने एकाग्रता प्राप्त नहीं की है और संकल्प बल भी उत्पन्न नहीं किया, वह यदि प्रत्याख्यान कर भी ले, तो भी उस का ठीक-ठीक निर्वाह नहीं कर सकता। प्रत्याख्यान सब से ऊपर की आवश्यक क्रिया है। उसके लिए विशिष्ट चित्त शुद्धि और विशेष उत्साह की अपेक्षा है, जो कायोत्सर्ग के बिना पैदा नहीं हो सकते। इसी विचारधारा को सामने रखकर कायोत्सर्ग के पश्चात् प्रत्याख्यान का नंबर पड़ता है। उपयुक्त पद्धति से विचार करने पर यह स्पष्टतया जान पड़ता है कि छह आवश्यकों का जो क्रम है, वह विशेष कार्य कारण भाव की शृंखला पर अवस्थित है । चतुर पाठक कितनी भी बुद्धिमानी से उलट फेर करे, परन्तु उसमें वह स्वाभाविकता नहीं रह सकती, जो कि प्रस्तुत क्रम में है।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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