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________________ १४८ आवश्यक-दिग्दर्शन प्रत्याख्यान ग्रहण करने के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण चनुभंगी का । उल्लेख, प्राचार्य हेमचन्द्र, योगशास्त्र की स्वोपज्ञ वृत्ति में करते हैं। यह चतुर्भगी भी साधक को जान लेना आवश्यक है । (१) प्रत्याख्यान ग्रहण करने वाला साधक भी प्रत्याख्यान स्वरूप का ज्ञाता विवेकी तथा विचारशील हो और प्रत्याख्यान देने वाले गुरुदेव भी गीतार्थ तथा प्रत्याख्यान विधि के भलीभाँति जानकार हो । यह प्रथम भंग है, जो पूर्ण शुद्ध माना जाता है। (२) प्रत्याख्यान देने वाले गुरुदेव तो गीतार्थ हों, परन्तु शिष्य विवेकी प्रत्याख्यान स्वरूप का जानकार न हो। यह द्वितीय भग है। यदि गुरुदेव प्रत्याख्यान कराते समय संक्षेप मे अबोध शिष्य को प्रत्याख्यान की जानकारी कराये तो यह भंग शुद्ध हो जाता है, अन्यथा अशुद्ध । विना ज्ञान के प्रत्याख्यान ग्रहण करना, दुष्प्रत्याख्यान माना जाता है। (३) गुरुदेव प्रत्याख्यानविधिके जानकार न हो, किन्तु शिष्य जानकार हो, यह तीसरा भंग है । गीतार्थ गुरुदेव के अभाव में यदि १. प्रवचन सारोद्धार वृत्ति में भी उक्त चतुभंङ्गी का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । वहाँ लिखा है 'जाणगों जाणगसगासे, अजाणगो जाणग-सगासे, जाणगो अजाणगसगासे, अजाणगो अजाणगसगासे । २. भगवती सूत्र में वर्णन है कि जिसको जीव अजीव श्रादि का ज्ञान है, उसका प्रत्याख्यान तो सुप्रत्याख्यान है । परन्तु जिसे जद-नेतन्य का कुछ भी पता नहीं है, जो प्रत्याख्यान कर रहा है उसकी कुछ भी जानकारी नहीं है, उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान होता है। श्रगानी साधक प्रत्याख्यान की प्रतिज्ञा करता हुआ सत्य नहीं बोलता है, अग्नुि झूठ बोलता है । वह असंयत है, अविरत है, पापकर्मा है, एकान्न बाल है। 'एवं खलु से दुप्पच्चखाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहि पयक्वायमिति वदमाणो नो सच भामं भासद, मोसं भासं भामह ", -भग 121
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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