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________________ कायोत्सर्ग श्रावश्यक १३७ कायोत्सर्ग करने वाले सज्जन विचार सकते हैं कि कायोत्सर्ग के लिए कितनी तैयारी की आवश्यकता है, शरीर पर का कितना मोह हटाने की अपेक्षा है । कायोत्सर्ग करते समय पहले से ही शरीर का मोह रखलेना और उसे वस्त्रों से लपेट लेना किसी प्रकार भी न्याय्य नहीं है। ममत्व त्याग के ऊँचे आदर्श के लिए वस्तुतः सच्चे हृदय से ममत्व का त्याग करना चाहिए। कायोत्सर्ग के लिए ऊपर आचार्य भद्रबाह के जो उद्धरण दिएगए हैं, उनका उद्देश्य सावक मे क्षमता का दृढ़ बल पैदा करना है। उसका यह अर्थ नहीं है कि साधक मिथ्या अाग्रह के चक्कर में अज्ञानतावश अपना जीवन ही होम दे । साधक, पाखिर एक साधारण मानव , हैं । परिस्थितियाँ उसे झकझोर सकती हैं। सभी साधक एक क्षण में ही उस चरम स्थिति में पहुँच सके, यह असम्भव है। आज ही नहीं, उस युग में भी असम्भव था। मानव जीवन एक पवित्र वस्तु है, उसे किसी महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही सुरक्षित रखना है या होम देना है । अतः भगवान् ने दुर्बल साधकों के लिए आवश्यक सूत्र मे कुछ श्रागारों की ओर सकेत किया है। कायोत्सर्ग करने से पहले उस आकार सूत्र का पढ़ लेना, साधक के लिए आवश्यक है | खाँसी, छीक, डकार, मूर्छा आदि शारीरिक व्याधियों का भी आगार रक्खा जाता है, क्योंकि शरीर शरीर है, व्याधिका मन्दिर है। किसी अाकस्मिक कारण से शरीर मे कम्पन बाजार तो उस स्थिति में कायोत्सर्ग का भंग नती होता है। दीपार या छत आदि गिरने की स्थिति में हों, आग लग जाए, चोर या गजा आदि का उपद्रव हो, अचानक मार काट का उपद्रव उठ खडा हो, तब भी कायोत्सर्ग खोलकर इधर-उबर सुरक्षा के लिए प्रबन्ध किया जा सकता है। व्यर्थ ही धर्म का अहंकार रख कर ' खड़े रहना, और फिर पात रोद्र ध्यान की परिणति मे मरण तथा प्रहार प्राप्त करना, संयम के लिए घातक चीज है। जैन साधना का मूल उद्देश्य प्रातरौद्र की परिणति को बन्द करना है, अतः जब तक वह परिणति कर इधर-उबर मी रहना, और फिरता है। व्यर्थ
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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