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________________ कायोत्सर्ग श्रावश्यक कदम-कदम पर कायोत्सर्ग का स्वर गूंजते रहने में ही आज के धर्म, समाज और राष्ट्र का कल्याण है। कायोत्सर्ग की भावना के विना समय पर महान् उद्देश्यो की पूर्ति के लिए अपने तुच्छ स्वार्थों को वलिदान करने का विचार तक नहीं पा सकता। इस जीवन में शरीर का मोह बहुत बडा बन्धन है। जीवन की प्राशा का पाश जन-जन को अपने में उलझाए हुए है। पद-पद पर जीवन का भय कर्तव्य साधना से पराङ् मुख होने की प्रेरणा दे रहा है। प्राचार्य अकलंक इन सब बन्धनों से मुक्ति पाने का एक मात्र उपाय कायोत्सर्ग को बताते हैं-'निःसंग-निर्भयत्व-जीविताशा-घ्युदासाद्यर्थों व्युत्सर्गः ।। -राजवार्तिक ९ । २६ । १० । श्राचार्य अमित गति तो अपने सामायिक पाठ में कायोत्सर्ग के लिए मङ्गलकामना ही कर रहे हैं किशरीरतः कर्तुमनन्तशक्ति, विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेन्द्र । कोषादिव खङ्ग-यष्टिं, तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः ।२। -हे जिनेन्द्र ! श्राप की अपार कृपा से मेरी आत्मा में ऐसी श्राध्यात्मिक शक्ति प्रकट हो कि मै अपनी अनन्त शक्ति सम्पन्न, दोषरहित, निर्मल वीतराग श्रात्मा को इस क्षणभंगुर शरीर से उसी प्रकार अलग कर सकूँ-अलग समझ सकूँ, जिस प्रकार म्यान से तलवार अलग की जाती है। ___ हाँ तो जनधर्म के षडावश्यक में कायोत्सर्ग को स्वतन्त्र स्थान इसी । ऊपर की भावना को व्यक्त करने के लिए मिला है। प्रत्येक जैन साधक को प्रातः और सायं अर्थात् प्रति-दिन नियमेन कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर १-अभिक्खयां काउस्सग्गकारी। -दशवै० द्वितीय चूलिका
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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