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________________ १२२ आवश्यक दिग्दर्शन अाच यं जिनदास कहते हैं-'भावपडिक्कमणं जं सम्मदंसणाइगुणजुतस्स पडिक्कमणं ति ।' आचार्य भद्रबाहु कहते हैं भाव-पडिक्क्रमणं पुण, - तिविह तिविहेण नेयत्व ॥१२५१|| प्राचार्य हरिभद्र ने उक्त नियुक्ति गाथा पर विवेचन करते हुए एक गाथा- उद्धृत की है, जिसका यह भाव है कि मन, वचन एवं काय से मिथ्यात्वं, काय आदि दुर्भावो में न स्वयं गमन करना, न दूसरों को गमन कराना, न गमन करने वालो का अनुमोदन करना ही भाव प्रतिक्रमण है। "मिच्छत्ताइ ण गच्छइ, ण य गच्छावेइ णाणुजाणेई। . जं मण वय - काएहि, त भणियं भावपडिक्कमणं ।।" आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में काल के भेद से प्रतिक्रमण तीन प्रकार का बताया है: (१) भूत काल में लगे हुए दोषो की आलोचना करना । (२) वर्तमान काल मे लगने वाले दोषो से संवर द्वारा बचना । (३) प्रत्याख्यान द्वारा भावी दोपो को अवरुद्ध करना । ., उपयुक्त प्रतिक्रमण की त्रिकाल-विषयता पर प्रश्न है कि-प्रति क्रमण तो भूतकालिक माना जाता है, वह त्रिकाल विषयक कैसे हो सकता है ? उत्तर में निवेदन है कि प्रतिक्रमण शब्द का मौलिक अर्थ अशुभयोग की निवृत्ति है । प्राचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र की स्वोपज्ञ वृत्ति में यही भाव व्यक्त करते हैं-'प्रतिक्रमण शब्दोऽशुभयोग निवृत्तिमात्रार्थः ।' अस्तु निन्दा द्वारा भूतकालिक अशुभयोग की निवृत्ति होती है, अतः यह अतीत प्रतिक्रमण है। संवर के द्वारा वर्तमान कालविषयक अशुभयोगों की निवृत्ति होती है, अतः यह वर्तमान प्रतिक्रमण है।।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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