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________________ ५११९ प्रतिक्रमण यावश्यक क्षायोपशमिकाद् भावादौदयिकस्य वशं गतः। तत्रापि च स एवार्थः, प्रतिकूलगमात्स्मृतः॥ . रागद्वेषादि औदयिक भाव संसार का मार्ग है और समता, क्षमा, दया, नम्रता आदि क्षायोपशमिक भाव मोक्ष का मार्ग है। अस्तु, क्षायोपशमिक भाव से औदायिक भाव मे परिणत हुआ साधक जब पुनः प्रौदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में लौट आता है, तो यह भी प्रतिकूल गमन के कारण प्रतिक्रमण कहलाता है। प्रति प्रति वर्तनं वा, शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु । - नि: शल्यस्य यतेर्यत् , तद्वा ज्ञयं प्रतिक्रमणम् ।। -अशुभयोग से निवृत्त होकर निःशल्य भाव से उत्तरोत्तर प्रत्येक शुभ योग मे प्रवृत्त होना ही प्रतिक्रमण है। साधना क्षेत्र मे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और अप्रशस्त योग ये चार दोष बहुत भयंकर माने गए हैं। प्रत्येक साधक को इन चार दोपों का प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। मिथ्यात्व को छोड कर सम्यक्त्व में आना चाहिए,' अविरति का त्याग कर विरति को स्वीकार १-मिथ्यास प्रतिक्रमण का यह भाव है कि-'ज्ञात या अज्ञात रूप में यदि कभी मिथ्यात्व का प्रतिपादन किया हो, मिथ्यात्व मे परिणति की हो तो उसकी आलोचना कर पुनः शुद्ध सम्यक्त्व भाव में उपस्थित होना। श्राचार्य भद्रबाहु ने १२५१ वी गाथा में ससार प्रतिक्रमण का भी उल्लेख किया है, उसका यह भाव है-नरकादि गति के कारणभूत महारंभ आदि हेतुत्रो की आलोचना निन्दा गर्हणा करना ।' कुमनुष्य और कुदेव गति के हेतुओं की आलोचना ही करणीय है, शुभ मनुष्य और शुभ देवगति के हेतुओं की नहीं। क्योंकि विनयादि गुण हेय नहीं हैं। 'नवरं शुभनरामरायुहेतुभ्यो मायाचनासेवनादिलक्षणेम्यो निराशंसेनैव अपवर्गाभिलाषिणापि न प्रतिक्रान्तव्यम् ।' -प्राचार्य हरिभद्र
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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