SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन लिए पहुँचा। ऊपर से वन्दन करता रहा, किन्तु अन्दर में आक्रोश की श्राग जल रही थी। सूर्योदय के पश्चात् श्रीकृष्ण ने पूछा कि 'भगवन् ! आज आप को पहले वन्दना किसने की ? भगवान् ने उत्तर दिया'द्रव्य से पालक ने और भाव से शाम्ब ने उपहार शाम्ब को प्राप्त हुआ। पाठक उक्त कथानकों पर से द्रव्य वन्दन और भाव वन्दन का अन्तर समझ गए होंगे | द्रव्य वन्दन अंधकार है तो भाववन्दन प्रकाश है । भाववन्दन ही आत्मशुद्धि का मार्ग है। केवल द्रव्य वन्दन तो अभव्य भी कर सकता है। परन्तु अकेले द्रव्य वन्दन से होता क्या है ? द्रव्यबन्दन में जबतक भाव का प्राण न डाज्ञा जाय तब तक आवश्यकशुद्धि का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता । वन्दन क्रिया का उद्देश्य अपने में नम्रता का भाव प्राप्त करना है। जैनधर्म के अनुसार अहंकार नीच गोत्र का कारण है और नम्रता उच्च गोत्र का । वस्तुतः जो नम्र हैं, बड़ों का श्रादर करते हैं, सद्गुणों के प्रति बहुमान रखते हैं, वे ही उच्च हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं। जैनधर्म मे विनय एवं नम्रता को तप कहा है। विनय जिनशासन वा मूल है'विणो जिणसासणमूलं ।' आचार्य भद्रबाहु ने श्रावश्य नियुक्ति मे कहा है कि-'जिनशासन का मूल विनय है । विनीत साधक ही सच्चा संयमी हो सकता है । जो विनय से हीन है, उसको कैसा धर्म और कैसा तप विणो सासणे मुलं, विणीओ संजो भवे। विण्याउ विप्पमुक्कस्स, को धम्मो को तवो ॥ -आवश्यक नियुक्ति, १२१६ । दशवैकालिक सूत्र में भी विनय का बहुत अधिक गुणगान किया गया है। एक समूचा अध्ययन ही इस विषय के गम्भीर प्रतिपादन के
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy