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________________ ११२ श्रावश्यक दग्दशन अवन्दनीय व्यक्ति गुणी पुरुषों द्वारा वन्दन कराता है तो वह असंयम में और भी वृद्धि करके अपना अधःपतन करता है।' जैन धर्म के अनुसार द्रव्य ओर भाव दोनों प्रकार के चारित्र से संपन्न त्यागी, विरागी प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर एवं गुरु देव आदि ही वन्दनीय हैं । इन्हीं को वन्दना करने से भव्य साधक अपना आत्मकल्याण कर सकता है , अन्यथा नहीं । साधक के लिए वही आदर्श उपयोगी हो सकता है जो बाहर में भी पवित्र एवं महान हो और अन्दर में भी। न केवल बाह्य जीवन की पवित्रता साधारण साधकों के लिए अपने जीवन-निर्माण में आदर्श रूपेण सहायक हो सकती है , और न केवल अंतरंग पवित्रता एवं महत्ता ही । साधक को तो ऐसा गुरुदेव चाहिए, जिस का जीवन निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से पूर्ण हो । प्राचाय भद्रबाहु स्वामी आवश्यक नियुक्ति की ११३८ वीं गाथा में इस सम्बन्ध में मुद्रा अर्थात् सिक्के की चतुर्भगी का बहुत ही महत्त्वपूर्ण एव संगत दृष्टान्त देते हैं: (१) चॉदी यद्यपि शुद्ध हो, किन्तु उस पर मुहर ठीक न लगी होतो वह सिका ग्राह्य नहीं होता । इसी प्रकार भाव चारित्र से युक्त किन्तु द्रव्य लिग से रहित प्रत्येक बुद्ध आदि मुनि साधकों के द्वारा वन्दनीय नहीं होते। १-जे बंभचेर - भट्ठा, ___ पाए उड्डति बंभयारीणं। तेहोति कुंट मुंटा, बोही य सुदुल्लहा तेसिं ॥११०६ -आवश्यक नियुक्ति -~-जो पार्श्वस्थ श्रादि ब्रह्मचर्य अर्थात् संयम से भ्रष्ट हैं, परन्तु अपने को गुरु कहलाते हुए सदाचारी सज्जनों से वन्दन कराते हैं, वे अगले जन्म में अपंग, रोगी, हूँट मूंट होते हैं, और उनको धर्ममार्ग का मिलना अत्यन्त कठिन हो जाता है। -
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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