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________________ चतुर्विशतिस्तव श्रावश्यक १०६ बहुत ऊंची चीज मानता है, परन्तु उसे ही सब कुछ नहीं मानता। जैन धर्म की दृष्टि में भगवत्स्तुति हमारी प्रसुप्त अन्तर चेतना को जागृत करने के लिए सहकारी साधन है । हम स्वयं सदाचार के पथ पर चल कर उसे जगाने का प्रयत्न करते हैं। और भगवान की स्तुति हमें श्रादर्श प्रदान कर प्रेरणास्वरूप बनती है। जैन-धर्म के सुप्रसिद्ध विद्वान आचार्य जिनदास गणी ने इस सम्बन्ध मे स्पष्टतः कहा है कि केवल तीर्थकर देवों की स्तुति करने मात्र से ही मोक्ष एवं समाधि आदि की प्राप्ति नही होती है । भक्ति एवं स्तुति के साथ-साथ तप एवं संयम की साधना मे उद्यम करना भी अतीव आवश्यक है। न केवलाए तिस्थगरथुतीए एताणि (आरोग्गादीणि) लन्मति, किंतु तब-संजमुजमेण । --श्रावश्यक चूर्णि
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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