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________________ आवश्यक दिग्दर्शन इत्यर्थः।""अथवा सम् समे रागद्वाषाभ्यामनुपहते ., मध्यस्थे आत्मनि प्रायः उपयोगस्य प्रवृत्तिः समायः, स प्रयोजनमस्येति .. सामायिकम् । गोम० जीव० टीका गा० ३६८ .-पर द्रव्यों से निवृत्त होकर साधक की ज्ञान-चेतना जब आत्म-. स्वरूप में प्रवृत्त होती है, तभी भाव सामायिक होती है। रागद्वेष से रहित माध्यस्थ्यभावापन्न अात्मा सम कहलाता है, उस सम में गमन करना ही भाव सामायिक हैं। 'भावसामायिक सर्वजीवेपु मैत्रीभावोऽशुभपरिणामवर्जनं वा ।' -अनगार धर्मामृत टीका ८ । १६ । संसार के सब जीवो पर मैत्रीभाव रखना, अशुभ परिणति का त्याग कर शुभ एवं शुद्ध परिणति में रमण करना, भावसामायिक है। प्राचार्य जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक-भाष्य में तो बड़े ही विस्तार के साथ भाव सामायिक का निरूपण किया है, विशेष जिज्ञासु भाष्य का अध्ययन कर आनन्द उठा सकते हैं । प्राचार्य भद्रबाहु आवश्यक नियुक्ति की ७६६ वी गाथा, मे। सामायिक के तीन भेद बतलाते हैं-(१) सम्यक्त्व सामायिक, (२) श्रुत सामायिक, (३) और चारित्र सामायिक । समभाव की साधना के लिए सम्यक्त्व, श्रुत और चारित्र ही प्रधान साधन हैं । सम्यक्त्व से विश्वास की शुद्धि होती है, श्रुत से विचारो की शुद्धि होती है, चारित्र १-सामाइयं च तिविहं, सम्मत्त सुयं तहा चरित्तं च । ___ , दुविहं चेव चरित्त, अगारमणगारियं चेव ॥ . -आवश्यक नियुक्ति ७६६ .
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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