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________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन - हाँ, तालाबों के संसार के जीव खेलता रहता है। और वे अनन्त जीव एक ही शरीर में रहते है, फलतः उनका आहार पोर श्वास एक साथ ही होता है ! हाहन्त ! कितनी दयनीय है जीवन की विडंबना ! भगवान महावीर ने इसी विराट जीव राशि को ध्यान में रखकर अपने पावापुर के प्रवचन में कहा है कि सूक्ष्म पॉच स्थावरों से यह असंख्य योजनात्मक विराट संसार (काजल की कुप्पी के समान) ठसाठस भरा हुआ है, कहीं पर अणुमात्र भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ कोई सूक्ष्म जीव न हो। सम्पूर्ण लोकाकाश सूक्ष्म जीवों से परिव्याप्त है.---'सुहुमा सव्वलोगम्मि --उत्तराध्ययन सूत्र ३६ वॉ अध्ययन। हॉ, तो इस महाकाय विराट ससार में मनुष्य का क्या स्थान है ? अनन्तानन्त जीवों के संसार में मनुष्य एक नन्हे-से क्षेत्र में अवरुद्ध-सा खडा है। जहाँ अन्य जाति के जीव असंख्य तथा अनन्त संख्या में है, वहाँ यह मानव जाति अत्यन्त अल्प एवं सीमित है। जैन शास्त्रकार माता के गर्भ से पैदा होने वाली मानवजाति की संख्या को कुछ अंकों तक ही सीमित मानते हैं। एक कवि एवं दार्शनिक की भाषा में कहें तो विश्व की अनन्तानन्त जीवराशि के सामने मनुष्य की गणना मे या जाने वाली अल्प संख्या उसी प्रकार है कि जि: प्रकार विश्व के नदी नालो एवं समुद्रों के सामने पानी की एक फुहार और संसार के समस्त पहाडी एवं भूपिण्ड के सामने एक जरा-सा धूल का कण ! अाज संसार के दूर-दूर तक के मैदानों में मानवजाति के जाति, देश या धर्म के नाम पर किए गए कल्पित टुकड़ों में संघर्ष छिडा हुया है कि 'हाय हम अलसंख्यक है, हमारा क्या हाल होगा? बहुसंख्यक हमें तो जीवित भी नहीं रहने देंगे। परन्तु ये टुकड़े यह जरा भी नहीं विचार पाते कि विश्व की असंख्य जीव जातियों के समक्ष यदि कोई सचमुच अल्प संख्यक जीवजानि है तो वह मानवजाति है । चौदह राजुलोक में से उसे केवल सब से तुद्र एवं सीमित ढाई द्वीप ही रहने को मिले हैं। क्या समूची मानवजाति अकेले में बैठकर.फभी अपनी अल्पसंख्यकता पर विचार करेगी।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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