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________________ 149 अज्ञानो जड के स्वभाव मे स्थित हा कर्म के फल का ही अनुभव करता है किन्तु ज्ञानी कर्म के फल को जानता (ही) है, उदय मे आए हुए (कर्म) को (मुख-दु खरूप) अनुभव नही करता है। 150. अनाध्यात्मवादी (परतन्त्रतावादी) आध्यात्मिक ग्रन्थो का भली प्रकार से अध्ययन करके भी (जड)-स्वभाव को नही छोडता है, (जैसे) सर्प गुड सहित दूघ को पीते हुए भी विष-रहित नहीं होते हैं। 151 विरक्ति को पूर्णत प्राप्त हुआ जानी कर्म के फल को (केवल) जानता है। इसलिए वह अनेक प्रकार के मधुर (सुख देनेवाले) (और) कडवे (दुख देनेवाले) (कर्म के फल) को भोगनेवाला नहीं (होता है)। 152 ज्ञानी (व्यक्ति) वहत प्रकार के कर्मों को न ही करता है (और) न ही भोगता है, किन्तु (वह) (तो) कर्मों के फल को और (उनके) वन्ध को, पुण्य तथा पाप को (केवल) जानता (ही) है । 153 जीव के जो कोई गण (है), वे द्रव्यो मे निश्चय ही नहीं होते है। इसलिए सम्यग्दृष्टि के (इन्द्रिय)-विषय मे राग विल्कुल नहीं होता है। 154 बहुत प्रकार के साधुओ के वेषो और गृहस्थो के वेषो को प्रत्यक्ष करके मूढ व्यक्ति इस प्रकार कहता है (कि) यह वेष मोक्ष (परम शान्ति स्वतन्त्रता) का मार्ग है। [ 53 चयनिका
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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