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________________ 137 जो भी अनाध्यात्मवादी (परतन्त्रतावादी) जीव शुद्ध आत्मा पर अश्रद्धा करता हुआ अध्ययन करता है, तो (उस) (शुद्ध आत्म) ज्ञान पर अश्रद्धा करते हुए (जीव) के लिए (वह) अध्ययन (कोर्ड) (आत्म-ज्ञान-रूपी) फल उत्पन्न नही करता है। 138 आचाराग आदि (आगमो) मे (गति) ज्ञान समझा जाना चाहिए, और जीव आदि (तत्वो मे) (रुचि) दर्शन (सम्यग्दर्शन) (समझा जाना चाहिए)। छः जीव-समूह के प्रति (करुणा) चारित्र (समझा जाना चाहिए)। इस प्रकार व्यवहार कहता है। 139 ज्ञानी राग-द्वीप-मोह अथवा कपाय-भाव को कभी नही करता है। इसलिए मन के उन भावो का वह स्वय कर्ता नहीं हैं। 140 जैसे (कोई) वन्धन में बंधा हा (उस) बघन की चिंता करते हुए (उससे) छुटकारा नही पाता है, उसी प्रकार जीव भी (कर्म)-वधन की चिंता करते हुए मुक्ति (शान्ति) प्राप्त नही करता है। 141 जैसे (कोई) बधन से वधा हा (उस बधन को नष्ट करके (उससे) छुटकारा पाता है, वैसे ही (कर्म-बधन) को नष्ट करके जीव मुक्ति (परम शाति) प्राप्त करता है। 142 (कर्म)-बध के स्वभाव को और आत्मा के स्वभाव को जानकर जो (व्यक्ति) (कर्म)-बध से उदासीन हो जाता है, वह कर्मों से छुटकारा प्राप्त कर लेता है। चयनिका । 49
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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