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________________ 131 और जागृत (व्यक्ति) वहुत प्रकार की क्रियाओं मे प्रवृत्ति करता हुआ तथा चेतना मे रागादि को नही करता हुआ ( कर्म / मानविक तनावरूपी ) चूल के द्वारा मलिन नही किया जाता है । 132 प्राणियो की हिंसा करो अथवा ( उनकी ) हिमा न भी करो, (किन्तु ) (हिमा के ) विचार से ( ही ) (कर्म) - वध (होता है) । निश्चयनय के ( अनुसार ) यह जीवो के कर्म - (वध) का सक्षेप है । 133 इस प्रकार असत्य मे, चोरी मे, अब्रह्मचर्य मे (तथा) परिग्रह मे जो ( श्रासक्तिपूर्ण) विचार किया जाता है, उसके द्वारा ही पाप ग्रहण किया जाता है । 134 और उसी प्रकार ही सत्य मे, अचौर्य मे, ब्रह्मचर्य मे (तथा) अपरिग्रहता मे जो विचार किया जाता है, उसके द्वारा ही पुण्य ग्रहण किया जाता है । 135 फिर वस्तु को श्राश्रय करके निस्सदेह जीवो के वह ( श्रासक्ति पूर्ण) विचार होता है, तो भी वास्तव मे वस्तु से बघ नही (होता है) । प्रत ( श्रासक्तिपूर्ण) विचार से ही बघ (होता है) । 136 इस प्रकार निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय अस्वीकृत ( है ) । ( ऐसा ) (तुम) समझो। और फिर निश्चयनय के आश्रित ज्ञानी परम शान्ति प्राप्त करते है । चयनिका [ 47
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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