SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 90 सम्यग्दृष्टि के जीवन मे (नये) राग-द्वेष (आसक्ति) और मोह (मूर्छा) नही (होते हैं)। इसलिए (उसके) आश्रव (नये मानसिक तनावो की उत्पत्ति) (नही होता है)। प्राश्रव को (उत्पन्न करनेवाले) मनोभाव के बिना प्रत्यय (सत्ता मे विद्यमान कर्म) (प्राश्रव का) हेतु नही होते हैं। 91 (शुद्ध) ज्ञानात्मक चेतना (शुद्ध) ज्ञानात्मक चेतना मे ही (रहती है)। क्रोधादि (कषायो) मे किंचित भी ज्ञानात्मक चेतना (नही रहती है)। क्रोध क्रोध मे ही (रहता है)। इसलिए ज्ञानात्मक चेतना मे क्रोध बिलकुल ही नही रहता है। जिस समय व्यक्ति के (जीवन मे) यह सम्यक् ज्ञान सचमुच उत्पन्न होता है, उस समय ज्ञान (समत्व) के द्वारा शुद्ध हुआ व्यक्ति कोई भी (शुभ-अशुभ) भाव उत्पन्न नही करता है। 92 93 जैसे आग मे तपाया हया सोना भी (अपने) कनक-स्वभाव को नही छोडता हैं, वैसे ही कर्म के उदय से तपाया हुआ ज्ञानी भी (अपने) ज्ञानीपन को नहीं छोडता है। इस प्रकार ज्ञानी समझता है। (किन्तु) अज्ञानी अज्ञानरूपी अधकार से लोप किए गए आत्म-स्वभाव को न जानता हुआ राग और आत्मा को (एक) ही मानता है । 94 95 शुद्ध (प्रात्मा) को जानता हुमा व्यक्ति शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है तथा अशुद्ध (आत्मा) को जानता हुआ (व्यक्ति) अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है। चयनिका [ 33
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy