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________________ 85 जिस प्रकार मैल के धने सयोग से ढकी हुई वस्त्र की सफेद अवस्था अदृश्य हो जाती है, उसी प्रकार कषाय के मैल से लोप किया गया (स्वरूपाचरण) चारित्र (अदृश्य हो जाता है)। (यह) समझा जाना चाहिए । 86 वह (आत्मा) पूर्ण ज्ञान से देखने वाला है। (फिर भी खेद है कि) (वह) अपने द्वारा (अजित) कर्मरूपी रज से ही आच्छादित है (तथा) (उसके द्वारा) ससार (मानसिक तनाव) प्राप्त किया गया (है), (इसलिए) (वह) (अव) किसी भी (पदार्थ) को पूर्ण रूप से नही जानता है । 87 सम्मन्दष्टि के (जीवन मे) पाश्रव (कर्म/नये मानसिक तनाव की उत्पत्ति) का नियन्त्रण हो जाता है। इसलिए उसके आश्रव से उत्पन्न वध (अशान्ति) नही होता है । वह उनको (नवीन कर्मो को) न बांधता हुआ (जीता है) । वह पूर्व में बाँधे हुए विद्यमान (कर्मों) को केवल (दृष्टा-भाव से) जानता है। 88 जोव के द्वारा किया हुआ रागादियुक्त भाव ही कर्म-बन्ध करनेवाला होता है, (किन्तु) रागादि से रहित (भाव) कर्म-बन्ध करनेवाला नही (होता है) । (वह) (तो) केवल जायक (होता हैं)। 89 पक्के फल के गिरे हुए होने पर जैसे (वह) फल फिर से डठल पर नही वाँधा जाता है, (उसी प्रकार) जीव के कर्म-भाव के गिरे हुए होने पर (जीव के कर्म) फिर से उदय को प्राप्त नहीं होते हैं । [ 31 चयनिका
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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