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________________ पुद्गल कर्म के द्वारा उत्पन्न किए हुए किसी भी भाव का (आत्मा) कर्ता नही है। निश्चयनय के (अनुसार) इस प्रकार (कहा गया है कि) आत्मा आत्मा (अपने भावो) को ही करता है, तथा आत्मा आत्मा (अपने भावो) कोही भोगता है,उसको ही (तुम)जानो। 43 विन्तु व्यवहारनय के (अनुसार) आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गल कर्म को करता है, तथा (वह) उस अनेक प्रकार के पुद्गल कर्म को ही भोगता है । 44 यदि आत्मा इस पुद्गल कम को (भी) करता है (तथा) उसको ही भोगता है (तो) वह दो (विभिन्न) क्रियाओ से अभिन्न (होता है) । (ऐसा सोचने से) (वह) जिन (के कथन) से विपरीत मत मे सलग्न होता है। 45 (अज्ञानी) आत्मा जिस भाव को उत्पन्न करता है, वह उस भाव का कर्ता होता है। उसके (कर्ता) होने पर पुद्गल द्रव्य अपने आप कर्मत्व को प्राप्त करता है। 46 पर (द्रव्य) को आत्मा मे ग्रहण करता हुआ तथा आत्मा को भी पर (द्रव्य) मे रखता हुआ जीव (मनुष्य) अज्ञानमय होता है। वह (अज्ञानी जीव ही) कर्मों का कर्ता (कहा जाता है) । पर (द्रव्य) को आत्मा मे ग्रहण न करता हुआ तथा आत्मा को भी पर (द्रव्य) मे न रखता हुआ जीव (मनुष्य) ज्ञानमय होता है। वह (ज्ञानी जीव ही) कर्मों का अकर्ता (कहा जाता है) । *1 मात्मा के द्वारा शुद्ध भावो को करना व भोगना तथा 2 पात्मा के द्वारा पुद्गल कर्म को करना व भोगना । - - चयनिका [ 17
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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