SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 30 क्रोधादि को करते हुए उसके कम (मानसिक तनाव) का सचय होता है। इस प्रकार जीव के (कर्म) का बन्धन सवज्ञो द्वारा बताया गया (है)। जिम समय इस व्यक्ति के द्वारा आत्मा और पाश्रवो (कर्मों। मानसिक तनावो की उत्पत्ति) का विशिष्ट भेद (द्रष्टा भाव मे) जाना गया होता (हे), उस ममय उमके (कर्म) बन्ध (मानसिक तनाव) नही होता है। 32 आश्रवो (कर्मों/मानसिक तनावो की उत्पत्ति) की अमगलता और (उनको) (समताभाव से) विपरीत स्थिति को जान कर तथा (यह) (जानकर) (कि) (प्राथव) दुख (अशान्ति) का कारण (है), जीव उमसे दूर होने की क्रिया करता है । 33 में निश्चय ही अनुपम (हूँ), शुद्ध (हूँ), (अपने मूल रूप) मे प्रासक्तिरहित (हूँ) तथा (मै) ज्ञान-दर्शन से ओतप्रोत (हूँ) । (इसलिए) उसमे (ही) मन लगाया हुआ तथा उसमे ही ठहरा हुआ (मैं) इन मव (पाश्रवो मानसिक तनावो की उत्पति) का नाश करता हूँ। 34 ये (आश्रव/कर्म/मानसिक तनावो की उत्पत्ति) (यद्यपि) जीव से जुड़े हुए हैं, फिर भी (ये) अलग होने योग्य (होते हैं), (ये) अस्थिर हैं तथा (स्थायी) सहारे-रहित हैं । (ये) (स्वय) दुख (है) तथा दुख-परिणामवाले (हैं) । इस प्रकार जानकर (ज्ञानी) उनसे दूर हट जाता है। 35 निश्चय ही ज्ञानी अनेक प्रकार के पुद्गल-कर्म को (द्रष्टा भाव से) जानता हुआ (उस) पर द्रव्य की पर्याय मे कभी भी रूपान्तरित नहीं होता है, न (ही) (उसको) पकडता है और न (ही) (उसके साथ) आत्मसात् करता है। चयनिका [ 13
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy