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________________ 17. जैसे कोई भी मनुष्य, यह पर वस्तु है, इस प्रकार जानकर (उसको) छोड देता है, वैसे ही ज्ञानी (मनुष्य) सभी पर भावो को समझकर (उनको) त्याग देता है। 18 मैं अनुपम (हूँ), निश्चय हो शुद्ध (१), दर्शन-ज्ञानमय (हूँ), सदा अमूर्तिक (अतीन्द्रिय) हूं, इसलिए कुछ भी दूसरो (वस्तु) परमाणु मात्र भी मेरी नहीं है। 19 (जव) अरिहत द्वारा ये सभी (रागादि) भाव (कर्म)-पुद्गल द्रव्य के फल-स्वरूप उत्पन्न कहे गए (है) (तो) वे जीव (चेतन) (हैं), इस प्रकार कैसे कहे जाते हैं ? (यह समझ मे नही आता है)। 20 (यह) तुम जानो (कि) आत्मा रस-रहित, रूप-रहित, गधरहित, शब्द-रहित तथा अदृश्यमान (है), (उसका) स्वभाव चेतना (है),(उसका) ग्रहण विना किसी चिन्ह के (केवल अनुभव से)(होता है) और (उसका) आकार अप्रतिपादित (है)। 21. जीव मे (कोई) वर्ण नही (है), (उसमे) (कोई) गध भी नही है, (उसमे) (कोई) रस भी नही है, (उसमे) (कोई) स्पर्श भी नही (है), (उसमे) (कोई) शब्द भी नहीं (है), (उसका) (कोई) शरीर भी नही (है), (उसका) (कोई) आकार भी नही (है) (और) (उसमे) (किसी प्रकार की) अस्थि-रचना भी नहीं (है) । जीव मे राग नही है, (उसमें) द्वेष भी नही (हैं), न ही (उसमे) मोह (है), न (उसमे) ज्ञेय पदार्थ (है), न ही (उसमे) कर्म (है) और (उसके) शरीरादि (नोकर्म) भी नही है । चयनिका [ १ 22.
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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