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________________ 5 शुद्ध (आत्मा) का निरुपण शुद्धनय है, (जो) परम स्थिति को देखने वालो द्वारा (ही) समझा जाने योग्य (होता है)। और जो अ-परम स्थिति मे ठहरे हुए हैं (वे) ही व्यवहार के द्वारा उपदिष्ट (होते हैं)। जो (नय) आत्मा को स्थायो, अद्वितीय, (कर्मों के) वन्ध से रहित, (रागादि से) न छुआ हुआ, (अत्तरग) भेद से रहित, (तथा) (अन्य से) अमिश्रित देखता है, उसको (तुम) शुद्ध नय जानो। 7 जो (आत्मा को न बधी हई (तथा) (कर्मों के द्वारा) मलिन न की हुई समझता है, (जो) (इसके अनुभव को) अद्वितीय (ममझता है) और इसके अस्तित्व को (अन्तरगरूप से) भेदरहित (समझता है), (जो) (आत्मा को) क्षेत्ररहित, परिभाषारहित तथा मध्यरहित (समझता है), (वह) सम्पूर्ण जिन-शासन को समझता है। 8 जैसे कोई भी धन का इच्छक मनुष्य राजा को जानकर (उस पर) श्रद्धा करता है, और तब उसका बडी सावधानी पूर्वक अनुसरण करता है, 9 वैसे ही परम शान्ति के इच्छक (मनुष्य) के द्वारा आत्मारूपी राजा समझा जाना चाहिए तथा श्रद्धा किया जाना चाहिए और फिर निस्सन्देह वह ही अनुसरण किया जाना चाहिए। जोभी कोई चेतन, अचेतन, मिश्र(चेतन-अचेतन)अन्य पर द्रव्य है, (उसके विषय मे यदि कोई व्यक्ति सोचे कि) मैं यह (पर द्रव्य) हूँ, यह (पर द्रव्य) मैं (हूँ) मैं इसके लिए ही (हूँ) मेरे लिए यह (है, चयनिका [ 5 10
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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