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________________ नही कर पाते हैं। इस तरह से वे लोग स्वतन्त्रता की साधना के स्थान पर परतन्त्रता की साधना करने लग जाते हैं। अत कहा जा सकता है कि स्वतन्त्रता को साधना व्यक्तित्व का प्राध्यात्मिक आन्तरिक परिवर्तन है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि कर्म-बन्धन (परतन्त्रता। मानसिक तनाव) के विषय मे चिन्ता करने से कर्म-वन्धन (मानसिक तनाव) नष्ट नही होता है (140)। चिन्ता व्याकुलता को जन्म देतो है, इस कारण व्यक्ति अपने उद्देश्य को प्राप्ति मे सफल नहीं हो पाता है। जो कर्म-बन्धन से उदासीन हो जाता है, जो वस्तुओ मे आसक्ति को त्यागता है, वही उससे छुटकारा पाता है और परम शान्ति प्राप्त करता है (141, 142)। साधना मे पाप (अशुभ क्रिया) का त्याग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हिंसक क्रिया के त्याग के साथ हिंसा के विचार का त्याग आवश्यक है । समयसार का शिक्षण है कि व्यक्ति प्राणियो की हिसा कर पावे अथवा उनकी हिंसान भी कर पावे, तो भी उसके हिसा के विचार से ही कर्म-वध होता है । निश्चयनय के अनुसार यह व्यक्तियो के कर्म-बध के कारण का सक्षेप है (133)। इसी प्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह के आसक्तिपूर्ण विचार को त्यागना ही विकास की ओर जाना है (132) । बाह्य पापपूर्ण क्रियाओ का त्याग समाज के लिए तो उपयोगी है,पर आन्तरिक त्याग के विना व्यक्ति का विकास नहीं होता है। पाप (अशुभ क्रिया) के वीज का नाश ही व्यक्ति व समाज मे स्थायी परिवर्तन ला सकता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह आदि का विचार पुण्य लाता है (134) | पुण्य शुभ क्रिया का ग्रहण है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि बहुत से व्यक्ति पुण्य (शुभ-क्रिया) मे ही अटक जाते हैं । zxil ] समयसार
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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