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________________ मजबूत होंगे। मूल के कमजोर होने से फल भी कमजोर होते हैं । फलों में गड़ांद या विकृति का कारण वास्तव में मूल का परिपुष्ट न होना है । मूल पुष्ट होता है तो वह सड़ांद या विकृति का निराकरण कर देगा। इसी प्रकार विचार-बल यदि पुष्ट हो तो साधक अहिंसा सत्य आदि व्रतों का ठीक तरह से निर्वाह कर सकेगा। मूल ढीला हुआ तो सामायिक में भी प्रमाद सातएगा या निद्रा पाएगी। भगवान् महावीर स्वामी ने इन्हीं तथ्यों को सामने रखकर अानन्द आदि को उपदेश दिया है। दिग्वत के अतिचारों के पहले चर्चा की गई है । वे पांच हैं । (१) अर्ध्वदिशा के परिमाण का अतिक्रमण (२) अघोदिशा संबंधी परिमारण का अतिक्रमण (३) तिर्शी दिश । सम्बन्धी परिमाण का अतिक्रमण (४) एक दिशा के परिमाण को घटाकर दूसरी दिशा के परिमाण को बढ़ा लेना और (५) किये हुए परिमाण का स्मरण न रखना । यह भी कहा जा चुका है कि परिमारण का उल्लंघन उसी स्थिति में अतिचार माना गया है जब संदेह की स्थिति में किया गया हो । अगर जान-बूझ कर उल्लंघन किया जाय तो वह अनाचार हो जाता है। - भोगोपभोग परिमाण-भोजन, पानी गंध, माला आदि जो वस्तु एक ही बार काम में आती है, वह उपभोग कहलाती है और जो वस्त्र, अलंकार शय्या, आसन आदि वस्तुएं बारबार काम में लायी जाती हैं उन्हें परिभोग कहते हैं। श्रावक को ऐसी सब चीजों की मर्यादा कर लेनी चाहिए जिससे शान्ति और सन्तोष का लाभ हो, निरर्थक चिन्ता न करनी पड़े, तृष्णा पर अंकुश लग सके और जीवन हल्का हो । मनुष्य अपनी आवश्यकताओं को जितना कम कर लेगा, उतनी ही अधिक शान्ति उसे प्राप्त हो सकेगी। अगर अपनी भोगोपभोग संबंधी इच्छा को नियंत्रित नहीं किया गया तो जिन्दगी उसके पीछे वर्वाद हो जाती है । भोगोपभोग के लिए ही मनुष्य हिंसा करता है, असत्य-भाषण करता है, अदत्त ग्रहण करता है, कुशील सेवन करता है, और संग्रह परायण बनता है । यदि भोगोपभोग की लालसा कम हो गई तो हिंसा
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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