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________________ विकार विजय अज्ञानी और ज्ञानी के जीवन में बड़ा अन्तर होता है। बहुत बार दोनों की वाह्य क्रिया एक-सी दिखाई देती है, फिर भी उसके परिणाम में बहुत अधिक भिन्नता होती है। ज्ञानी का जीवन प्रकाश लेकर चलता है जब कि अज्ञानी अन्धकार में ही भटकता है । ज्ञानी का लक्ष्य स्थिर होता है, अज्ञानी के जीवन में कोई लक्ष्य प्रथम तो होता ही नहीं, अगर हुआ तो भी विचारपूर्ण नहीं होता। उसका ध्येय ऐहिक सुख प्राप्त करने तक ही सीमित होता है। फल यह होता है कि अज्ञानी जीव जो भी साधना करता है वह ऊपरी होती . है, अन्तरंग को स्पर्श नहीं करती। उससे भवभ्रमण और बन्धन की वृद्धि होती . है, आत्मा के बन्धन कटते नहीं। ज्ञानी का अन्तस्तल एक दिव्य पालोक से जगमगाता रहता है। वह सांसारिक कृत्य करता है, गृहस्थी के दायित्व को भी निभाता है और व्यवहार-व्यापार भी करता है, फिर भी अन्तर में ज्ञानालोक होने से उनमें वह लिप्त नहीं होता । उसकी क्रियाएं अनासक्त भाव से सहज रूप में ही होती रहती हैं। इस तथ्य को समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए। एक अध्यात्मनिष्ठ सन्त भी भोजन करता है और एक रसलोलुप भी। बाहर से दोनों की क्रिया में अन्तर दिखाई नहीं देता। मगर दोनों की प्रान्तरिक वृत्ति में कितना अन्तर होता है ? एक में लोलुपता है, जिह्वासुख भोगने की वृत्ति है और इस कारण, : भोजन करते हुए वह चिकने कर्मों का बन्धन करता हैं तो दूसरे में पूर्ण अनासक . भाव है वह इन्द्रिय तृप्ति के लिए नहीं वरन् जीवन के उच्च ध्येय को प्राप्त करने में सहायक शरीर को टिकाये रखने की इच्छा से भोजन करता है । अतएव भोजन करते हुए भी वह कर्मबंध नही करता यही पार्थक्य अन्यान्य
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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