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________________ भ्रमण पर अंकुश दुनिया दुरंगी है। परस्पर विरोधी तत्त्वों की विद्यमानता इसकी विशेषता हैं । यहां धर्म है तो अधर्म भी है, नीति है तो अनीति भी है, सुजन हैं. तो दुर्जन भी हैं, जीव है तो अजीव भी है, साधक तत्त्व हैं तो वाधक तत्त्व भी मौजूद हैं । कोई किसी कार्य में प्रवृत्त हो, तो उसे पहले यह समझ कर चलना चाहिए कि मेरे कार्य में अनेक बाधक उपस्थित होंगे। वाधकों के उपस्थित होने पर विचलित न होने की क्षमता और संकल्प का बल बटोर कर चलने वाला ही अपने कार्य में सफल होता है । बाधक कारणों का कार्य वाधा पहँचाना है किन्तु साधक यदि सजग है, उसके संकल्प में कहीं कोई कमजोरी नहीं है तो कोई भी बाधक तत्त्व उसके मार्ग को न अवरुद्ध कर सकता है और न उसे विमुख ही बना सकता है। अध्यात्म साधना के पथ में क्या-क्या बाधाएं उपस्थित हो सकती हैं और उन पर किस प्रकार विजय प्राप्त करनी चाहिए, इस सम्बन्ध में इस क्षेत्र के अनुभवी साधकों ने पर्याप्त विचार किया है। प्रधान रूप से वे बाधक तत्त्व दो हैं-प्रमाद और कषाय । प्रमाद और कषाय का घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रमाद, कषाय का मार्ग प्रशस्त करता है । वह साधक को पहले असावधान बनाता है और फिर कषाय आ धमकता है। कषाय का कार्य साधना में रुकावट डालना है, गतिरोध उत्पन्न करना है और कभी-कभी वह गाड़ी को उलट भी देता है । वह साधक को विपरीत दिशा में भी ले जाता है । इस प्रकार प्रमाद और कषाय दोनों पन्यग्दर्शन और विरतिभाव की निर्मलता में बाधक हैं। इन्हीं के प्रभाव से वस के विषय में अतिक्रम, व्यक्तिरूम, अतिचार और अनाचार का
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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