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________________ न केवल वाणी के द्वारा ही वरन्. उन्होंने अपने जीवन व्यवहार से भी उच्च आदर्श हमारे समक्ष उपस्थित किए । ऐसे महान व्यक्ति ही जगत् में वन्दनीय और अभिनन्दनीय होते हैं। . इससे विपरीत जो पूजी पाकर स्वयं उसका सदुपयोग नहीं करता, और दूसरों की सहायता नहीं करता प्रत्युत दुर्व्यसनों का पोषण करता है, वह इस लोक में निन्दित बनता है और अपरलोक को पापमय बना कर दुखी होता है। : पूर्व संचित पुण्य का ही यह फल है कि हमें आर्य भूमि में जन्म मिला, मानव शरीर मिला, धर्म संस्कार वाला कुल मिला, धन-वैभव मिला और सन्त समागम करने का सुयोग मिला। ऐसी स्थिति में आगे उदय का क्या रूप हो यह मनुष्य को सोचना चाहिए। . जीवन की अवधि है, वह स्थायी टिकने वाला नहीं यह निश्चित है। शरीर त्यागने के पश्चात् पुनः शरीर धारण करना पड़े और न भी धारण करना पड़े, परन्तु शरीर धारण करने के पश्चात् उसे त्यागना तो अनिवार्य ही है । कोई भी मनुष्यं न अमर हुआ और न हो सकता है इसी प्रकार पुण्य के खजाने के समाप्त होने की भी अवधि है । जो भी कर्म बंधता है, वह चाहे शुभ हो या अशुभ, एक नियत्त अवधि तक ही आत्मा के साथ बद्ध रह सकता है। अवधि समाप्त होते ही वह आत्मा से पृथक हो जाता है । इस नियम के अनुसार पूर्वो- . पाजित पुण्य कर्म का भी क्षय होना अनिवार्य है । जिस खजाने में से खर्च ही खर्च होता रहता है और नवीन आय बिलकुल नहीं होती, वह कितना ही विपुल क्यों न हो, कभी न कभी समाप्त हो ही जाता है । इस तथ्य को कौन नहीं जानता ? व्यावहारिक जगत् में धन के आय-व्यय संवन्धी बातों की सबको चिन्ता रहती है, किन्तु जिस पुण्य के प्रभाव से धन-वैभव टिकता है, उसकी किस को कितनी चिन्ता रहती है ? हम पुण्य का जो खजाना लेकर आए हैं तया जिसका उपभोग प्रतिपल कर रहे हैं, यदि उसमें नवीन आय सम्मिलित न की गई-नया पुण्य नहीं उाजित किया गया तो खजाना समाप्त हो जाएगा। फिर आगे क्या स्थिति होगी ? किन्तु मनुष्य वर्तमान को ही सब कुछ समझ
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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