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________________ शुभ-अशुभ भगवान् महावीर ने साधक की विविध स्थितियां बतला कर उसे ध्यान दिलाया कि संसार में विविध प्रकार के कर्म दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु वे सब मुख्य रूप से दो भेदों में अन्तर्गत हो जाते हैं-(१) शुभ या पुण्य कर्म और (२) अशुभ या पाप कर्म। पुण्य कर्म और पाप कर्म का भेद यद्यपि उनके विपाक की विविधता के आधार पर किया गया है किन्तु सूक्ष्मता में उत्तरें तो प्रतीत होगा कि यह दोनों प्रकार भी कोई मौलिक नहीं हैं। इन दोनों का मूल कार्मणवर्गरणा है जो पुद्गल की एक जाति है । कार्मणजातीय पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म और समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं । जीव के मनोयोग, वचनयोग और काययोग की प्रवृत्ति या तो शुभ होती है या अशुभ । दोनों प्रकार की प्रवृत्ति से कर्मों का बन्ध होता है । शुभ योग की प्रवृत्ति से शुभ कर्मों का बन्ध होता है और उसे पुण्यबन्ध कहते हैं । तथा अशुभ-योग की प्रवृत्ति से अशुभ कर्मों का बन्ध होता है, जिसे पापबन्ध कहते हैं । पुण्यकर्म का फल जीव को इप्ट रूप में प्राप्त होता है और पापकर्न का फल अनिष्ट रूप में मिलता है, संसार में जितने भी इष्ट संयोग हैं, मनोरम फल हैं, अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती है, वह सब पुण्य का परिणाम है और जितने भी अनिष्ट, अमनोज्ञ और अकाम्य फल है, वे सब पाप के परिपाक हैं। साधारणतया सामान्य संसारी जीव पुण्य को उपादेय और पाप को ... हेय समझते हैं और व्यावहारिक दृष्टि से यह ठीक भी है, किन्तु निश्चय दृष्टि' से पुण्य और पाप दोनों ही 'उपादेय नहीं हैं। शुद्ध अध्यात्म दृष्टि से दोनों प्रकार के कर्मों का अन्त होने पर ही सिद्धि, मुक्ति या शुद्ध स्वरूपोपलब्धि होती . है । सिद्धि की प्राप्ति में दोनों प्रकार के कर्मबाधक हैं। मगर इस विषय की .
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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