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________________ जीवनसुधार से ही मरणसुधार ग्रात्मा अजर, अमर, अविनाशी द्रव्य है । न इसको ग्रादि है, न ग्रन्त । न जन्म है, न मृत्यु है । किन्तु जब तक इसने अपने निज रूप को उपलब्ध नहीं किया है और जब तक इसके साथ पौद्गलिक शरीर का संयोग है, तब तक शरीर के संयोग-वियोग के कारण ग्रात्मा का जन्म मरण कहा जाता है । वर्तमान स्थूल शरीर से वियोग होना मरण और नूतन स्थूल शरीर का ग्रहण जन्म कहलाता है । जन्म से लेकर मरण तक का रूप जीवन है । इस प्रकार जन्म, जीवन और मरण, यह तीन स्थितियां प्रत्येक संसारी आत्मा के साथ लगी हुई हैं । श्रात्मा के जो निज गुण हैं, उनका विकास श्रात्मसुधार कहलाता है । श्रात्नसुवार का प्रथम सोपान जीवनसुधार है। जीवनसुधार का तात्पर्य है जीवन को निर्मल बनाना । जीवन में निर्मलता सद्गुणों और सद्भावनाओं से उत्पन्न होती है । जीवन सुधार से मरणपुधार होता है । जिसने अपने जीवन को दिव्य और भव्य रूप में व्यतीत किया है, जिसका जीवन निष्कलंक रहा है श्रीर विरोधी लोग भी जिसके जीवन के विषय में उंगली नहीं उठा सकते, वास्तव में उसका जीवन प्रशस्त है। जिसने अपने को ही नहीं, अपने पड़ोसियों को, अपने समाज को, अपने राष्ट्र को और समग्र विश्व को ऊंचा उठाने का निरन्तर प्रयत्न किया, किसी को कष्ट नहीं दिया मगर कष्ट से उबारने का ही प्रयत्न किया, जिसने अपने सद्विचारों एवं सद्द्माचार से जगत् के समक्ष ••
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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