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________________ [ ३१५ (५) परव्ययदेश - यह वस्तु मेरी नहीं पराई है, इस प्रकार का बहाना करना भी प्रतिचार हैं । यह मलीन भावना का द्योतक है। गृहस्थ को सरल भाव से, कर्मनिर्जरा के हेतु ही दान देना चाहिए। उसमें किसी भी प्रकार की दुर्भावना अथवा लोकैषरणा नहीं होनी चाहिए। तभी दान के उत्तम फल की प्राप्ति होती है। एक कवि ने कहा है बहु प्रदर बहु प्रिय वचन, रोमांचित बहु मान देह करे अनुमोदना, ये भूषण पर्मान ॥ रत्नत्रय की साधना करने वाले के प्रति गहरी प्रीति एवं प्रदर का भाव होना चाहिए । साधु का घर में पांव पड़ना कल्पवृक्ष का प्रांगन में आना हैं। ऐसा समझ कर श्रद्धा और भक्ति के साथ निर्दोष पदार्थों का दान करना चाहिए। जो श्रनारंभी जीवन याचन कर रहा है वह गुणों की ज्योति को जगाता है । उसे आदर दिया ही जाना चाहिए । अतिथि संविभाग व्रत शिक्षाव्रतों में ग्रन्तिम और बारह व्रतों में भी अन्तिम है । इन सब व्रतों के स्वरूप एवं प्रतिचारों को भलीभांति समझकर पालन करने वाला श्रमणोपासक अपने वर्तमान जीवन को एवं भविष्य को मंगलमय बनाता है। आनन्द सौभाग्यशाली था कि उसे साक्षात् तीर्थङ्कर भगवान् महावीर का समागम मिला। किन्तु इस भरत क्षेत्र में, महाविदेह की तरह तीर्थंकर सदा काल विद्यमान नहीं रहते हैं । आज तीर्थ कर नहीं हैं मगर तीर्थ कर की वाणी विद्यमान है। उनके मार्ग पर यथाशक्ति चलने वाले उनके प्रतिनिधि . भी मौजूद हैं । वीतराग के प्रतिनिधियों की वाणी से भी अनेकों ने अपना जीवन ऊँचा उठा लिया । वीतराग न हों, उनके प्रतिनिधि भी न हों, फिर भी उनकी वाणी का अध्ययन करने वालों में से हजारों उसके अनुसार श्राचरण करके तिर गए। श्राज भी उस वाणी का चिन्तन-मनन करने वाले अपना कल्याण कर सकते हैं ।
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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