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________________ ३०० ] आगम में 'चित्तभित्ति न निज्झाए' अर्थात् दीवाल पर बने हुए विकारजनक चित्रों को भी न देखे, इस प्रकार के शिक्षा वाक्य दिये गए हैं। पोषधव्रत में भी विकार विवर्धक विषयों से बचने की आवश्यकता है । . साधना जब एक धारा से चले तब उसमें पूर्ण-अपूर्ण का प्रश्न नहीं .. उठता, किन्तु मानसिक दुर्बलता ने प्रभाव डाला तो पूर्ण और अपूर्ण का भेद किया गया। पूर्वकाल में सबल मन वाले साधक थे, अतएव उनका तप निर्जल के .. रूप में चलता था। अभी तक के शास्त्रों के पालोडन से इसमें कहीं अपवाद दृष्टिगोचर नहीं हुअा। किन्तु पोषधव्रत में विभाग करने की आवश्यकता जब हुई तो प्राचार्यों ने उसे दो भागों में विभक्त कर दिया-देशपोषध और सर्वपोषध । देश-आहार त्याग और पूर्ण-पाहार त्याग नाम प्रदान किये गये। देशपोषध को दशम पोषध कहा जाने लगा। दशम पोषध का क्षेत्र काफी बड़ा है। यद्यपि पूर्वाचार्यों ने शारीरिक सत्व की कमी आदि कारणों से प्रशस्त ..... इरादे से ही छूट दी किन्तु वह छूट क्रमशः बढ़ती ही चली गई। मानव स्वभावः की यह दुर्बलता सर्व-विदित है कि छूट जब मिलती है तो शिथिलता बढ़ती ही जाती है। पोषधवत के भी पांच अतिचार हैं, जिन्हें जानकर त्यागना चाहिए । वे इस प्रकार हैं: .. .. (१) विस्तर अच्छी तरह देखे बिना सोना-पूर्वकाल में राज-घराने के ... लोग और श्रीमन्तजन भी घास आदि पर सोया करते थे। उसे देखने-भालने . ... की विशेष आवश्यकता रहती है। ठीक तरह देख-भाल न करने से सूक्ष्मः . जन्तुओं के कुचल जाने की और मर जाने की संभावना रहती है। अतएव .. बिस्तर पर लेटने और सोने से पूर्व उसे सावधानी के साथ देख लेना प्रत्येक दयाप्रेमी का कर्तव्य है। जो इस कर्तव्य के प्रति उपेक्षा करता है वह अपने . पोषधनत को दूषित करता है।
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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