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________________ ब्रह्मचर्य यों तो ज्ञान आत्मा का स्वभाव है और आत्मा कितना ही मलिन . और निकृष्ट दशा को क्यों न प्राप्त हो जाय, उसका स्वभाव मूलतः कभी नष्ट नहीं होता । ज्ञानालोक की कतिपय किरणें, चाहे वे धूमिल ही हों, मगर सदैव आत्मा में विद्यमान रहती हैं। निगोद जैसी निकृष्ट स्थिति में भी जीव में चेतना का अंश जागृत रहता है । इस दृष्टि से प्रत्येक आत्मा ज्ञानवान् ही कहा जा सकता है, मगर जैसे अत्यल्प धनवान को धनी नहीं कहा जाता विपुल धन - का स्वामी ही धनी कहलाता है, इसी प्रकार प्रत्येक जीव को ज्ञानी नहीं कह सकते । जिस आत्मा में ज्ञान की विशिष्ट मात्रा जागृत एवं स्फूर्त रहती है, वही '. वास्तव में ज्ञानी कहलाता है। - ज्ञान की विशिष्ट मात्रा का अर्थ है-विवेक युक्त ज्ञान होना, स्व-पर का भेद समझने की योग्यता होना और निर्मल ज्ञान होना । जिस ज्ञान में कषाय जनित मलीनता न हो वही वास्तव में विशिष्ट ज्ञान या विज्ञान कहलाता है । साधारण जीव जब किसी वस्तु को देखता है तो अपने राग या द्वष की भावना का रंग उस पर चढ़ा देता है और इस कारण उसे उस वस्तु का शुद्ध ज्ञान नहीं होता। इसी प्रकार जिस ज्ञान पर राग-द्वेष का रंग चढ़ा रहता है, जो ज्ञान कषाय की मलीनता के कारण मलीन बन जाता है, वह समीचीन ज्ञान नहीं कहा जा सकता । कहा भी है • "तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्न दिते विभाति रागगणा :। .. तमसः कुतोऽस्ति शक्तिः, दिनकर किरणाग्रतः स्थातुम् ? ॥" .... जिस ज्ञान के उदय में भी राग, द्वेष, मोह, अविवेक आदि दूषरा बने । - रहें उसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता । जैसे सूर्य के उदय होने पर अंधकार
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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