SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूंगा। जो इन व्रतों के दूषणों से बचा रहता है, उसके लिये सामायिक अादि र व्रत सरल हो जाते हैं । अणुव्रतों और गुणवतों की साधना को जो सफलता- पूर्वक सम्पन्न कर लेते हैं वे सामायिक की साधना के पात्र बन जाते हैं । जैसे सुमरनी ( माला ) की आदि और अन्त सुमेरू है, उसी प्रकार सामायिक व्रतों की प्रादि और अन्त दोनों हैं । जब तक उसका ठीक रूप समझ में नहीं पाएगा तब तक आदि और अन्त कसे समझ में आ सकता है ? ..शास्त्र का कथन है कि जब तक हृदय में शल्य विद्यमान रहता है तब : तक व्रती जीवन प्रारंभ नहीं होता ! माया, मिथ्यात्व और निदान, ये तीन भयंकर शल्य हैं जो आत्मा के उत्यान में रुकावट डालते हैं । इनके अतिरिक्त जब : कषायभाव की मन्दता होती है, अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानाकरण नामक कपाय का उपशम या क्षय होता है तभी जीव व्रती बनता है । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के आने पर जीव पर पदार्थ को बन्ध का कारण समझता है और शुद्ध चेतनास्वरूप प्रात्मा को पहचानता है। उस समय वह समझने लगता है कि प्रात्मा सभी पौद्गलिक भावों से न्यारा है, निराला है और उनके साथ आत्मा का तादात्म्य सम्बंध नहीं है, शरीर, इन्द्रियां और मन पौद्गलिक होने से प्रात्मा से पृथक हैं । आत्मा अरूपी तत्त्व है, देहादि रूपी हैं। प्रात्मा अनन्त चेतना का पुंज है, देहादि जड़ हैं । आत्मा अजर, अमर, अविनाशी द्रव्य है, देह आदि जड़ पर्याय हैं जिनका क्षण-क्षण में रूपान्तर होता रहता है। इस - प्रकार इनके साथ न अात्मा का कोई सादृश्य है और न एकत्व है। ....... इस प्रकार का भेद विज्ञान सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होने पर होता है । भेदविज्ञान की उत्पत्ति के साथ ही मोक्ष मार्ग का प्रारंभ होता है । भेद विज्ञानी प्राणी हेय और उपादेय के वास्तविक मर्म को पहचान लेता है और चाहे वह अपने ज्ञान के अनुसार आचरण न कर सके, फिर भी उसके चित्त में से .. राग-द्वेष की सधन ग्रंथि हट जाती है और एक प्रकार का उदासीन भाव उत्पन्न हो जाता है, जिसके कारण वह अत्यासक्त नहीं बनता । वह जल में कमल की तरह अलिप्त रहता हुवा संसार व्यवहार चलाता है । तत्पश्चात् .
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy