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________________ २४०] मस्तिष्क और हृदय बहुत दुर्बल है। वह गलत या सही, जहां भी क्षणिक सुखसुविधा देखता है, उसी ओर झुक जाता है। चाहे परिणाम कुछ भी हो, इस क्षणिक सुख की बदौलत चाहे कितना ही दुःख भविष्य में भोगना पड़े, मगर मनुष्य एकवार उस ओर प्रवृत हुए बिना नहीं रहता। ऐसी स्थिति में कौन-सा उपाय अपनाया जाय जिससे मनुष्य का निरंकुश मन अंकुश में पाए ? इस प्रश्न के समाधान के लिए भगवान् वीतराग ने व्रतविधि की योजना की है। व्रतों के द्वारा मन को मजबूत करके पाप को सीमित करने का मार्ग प्रस्तुत किया गया है। मनुष्य जव व्रत अंगीकार करता है तो उसका जीवन नियंत्रित हो जाता है । व्रत अभाव में जीवन का कोई सदुद्देश्य नहीं रहता। जब व्रत अंगीकार कर लिया जाता है तो एक निश्चितं लक्ष्य बन जाता है। व्रती पुरुष कुटुम्ब, समाज तथा देश में भी शान्ति का आदर्श उपस्थित कर सकता है और स्वयं भी अपूर्व शान्ति का उपभोक्ता बन जाता है। व्रती का जीवन दूसरों को पीड़ा प्रदायक नहीं होता, किसी को उत्ताप नहीं देता। वह धर्म, न्याय, शान्ति, सहानुभूति, करुणा और संवेदना जैसी दिव्य भावनाओं का प्रतीक बन जाता है। अतएव जीवन में व्रतविधान की अत्यन्त आवश्यकता है । महर्षियों ने शान्ति और कल्याण का जो उपदेश दिया है वह पात्र के पास पहुँचकर सफल बनता है। उपजाऊ जमीन पाने से बीज की कीमत होती है। सड़क जैसे स्थल में डाला हुआ बीज फलवान् नहीं होता। इसी प्रकार अपात्र को दिया गया उपदेश भी निष्फल जाता है। - आनन्द महावीर स्वामी के चरणों में योग्य पात्र बनकर पाया। उसके हृदय रूपी उर्वर प्रदेश में भगवान ने जो उपदेश बीज बोया वह अंकुरित हुआ • फलित हुआ। इससे उसके जीवन को अपूर्व प्रकाश मिला। उसने अद्भुत शान्ति का अनुभव किया। वह दूसरों के समक्ष भी मार्ग प्रस्तुत करने लगा। वह स्वयं ज्ञान को ग्रहण करके दूसरों के लिए दीपक बनता है ।। मगर व्रती जीवन की पवित्रता इस बात में है कि जिस भावना एवं · संकल्प शक्ति से प्रत को स्वीकार किया गया है, उसे सदैव जागृत रक्खा जाय,
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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